Book Title: Sramana 2011 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 23
________________ १२ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक २ / अप्रैल-जून-२०११ जैन दर्शन का स्याद्वाद सिद्धान्त प्रत्येक तत्त्व का सापेक्ष कथन करके जहाँ अन्य दर्शनों के सिद्धातों को किसी अपेक्षा से स्वीकार करता है, वहीं अन्य किसी दूसरी अपेक्षा से अपने जैनागम-सम्मत सिद्धान्त की पुष्टि भी करता है। अतः अनेकान्तवाद की प्रतिष्ठा में स्याद्वादी कथन एक सबल एवं पुष्ट कारण है। सामान्य रूप से अनेकान्तवाद और स्याद्वाद- ये दोनों सिद्धान्त आपस में इतने घुलेमिले हैं कि इन दोनों में भेद करना मुश्किल है, किन्तु जब दोनों सिद्धातों पर तात्त्विक द्रष्टि से विचार करते हैं तो जहाँ अनेकान्तवाद एक ही वस्तु में परस्पर-विरोधी विविध धर्मों किंवा विविध गुणों का मूल चिन्तन करता है, वहीं स्याद्वाद सिद्धान्त उस मूल चिन्तन को मुखरित करता है अर्थात् अभिव्यक्ति देता है। अतः इन दोनों सिद्धान्तों में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। ये दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं। एक मौन है तो दूसरा मुखरित। एक वस्तु के विविध धर्मों को अव्यक्त समर्थन देता है तो दूसरा व्यक्त रूप से। वाद का अर्थ होता है 'कथन' और वाद के इस अर्थ को न केवल पूर्ववर्ती आचार्य, अपितु वर्तमानकालीन आचार्य/विद्वान् भी समान रूप से स्वीकार करते हैं, किन्तु स्यात् पद को लेकर जैन और जैनेतर विद्वानों में मतभेद है। इसका मूल कारण जैनेतर दार्शनिकों द्वारा जैनदर्शन की पारिभाषिक शब्दावली को न समझना है और जिन जैनेतर दार्शनिकों ने जैनदर्शन की पारिभाषिक शब्दावली को समझ लिया है, उन्होंने न केवल जैनदर्शन के सिद्धान्तों की प्रशंसा की है, अपितु अपने ही सम्प्रदाय के पूर्ववर्ती आचार्यों की कटु आलोचना भी की है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पूर्व दर्शन विभागाध्यक्ष स्वर्गीय प्रो. फणिभूषण अधिकारी लिखते हैं कि 'जैन धर्म के स्याद्वाद सिद्धान्त को जितना गलत समझा गया है उतना अन्य किसी सिद्धान्त को नहीं। यहाँ तक कि शङ्कराचार्य भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्त के साथ अन्याय किया है। यह बात अन्य पुरुषों के लिए क्षम्य हो सकती है, किन्तु महर्षि के लिए नहीं। मैं इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शनशास्त्र के मूलग्रन्थों को नहीं देखा है।'' इसी प्रकार प्रयाग विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति महामहोपाध्याय स्व० डॉ० गंगानाथ झा लिखते हैं कि 'मैंने शङ्कराचार्य जी द्वारा जैन सिद्धान्त का खण्डन पढ़ा है तब से मुझे विश्वास हुआ है कि उस सिद्धान्त में बहुत कुछ है, जिसे वेदान्त के आचार्यों ने नहीं समझा और जो कुछ मैंने जैन धर्म को अब तक जान सका

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