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आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में सम्यग्दर्शन : २५
चाहिए। उसी प्रकार जिसका मिथ्यात्व चला गया उसका संसार अब समाप्त ही समझना चाहिए और जिसका मिथ्यात्व नहीं गया उसका संसार हरा-भरा ही समझना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्व (मिथ्यादर्शन) ही संसार - वृक्ष का मूल है और सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) ही मोक्षतरु का मूल है। इसलिए आचार्य कुन्दककुन्द को जोर देकर कहना पड़ा कि मोक्षाभिलाषी जीव को सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उद्यम करना चाहिए। सम्यग्दर्शन में भी मात्र व्यवहार सम्यग्दर्शन में ही नहीं रुक जाना चाहिए, निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उद्यम करना चाहिए ।
प्रश्न- यह सम्यग्दर्शन कैसे प्राप्त हो ?
उत्तर- कोई किसी को सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं करा सकता । सम्यग्दर्शन प्राप्त करने हेतु तो जीवादि सात तत्त्वों का समीचीन श्रद्धान करना होता है । उमास्वामी आदि सभी जैनाचार्यों का स्पष्ट मत है। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - इन सात तत्त्वों का समीचीन श्रद्धान करने से ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है।
आचार्य कुन्दकुन्द तो इस विषय में भी एक सारभूत विशेष बात यह कहते हैं कि जो एक आत्मा का श्रद्धान करता है उसे सभी तत्त्वों का श्रद्धान प्राप्त हो जाता है, अतः तुम तो एक आत्मा का ही समीचीन श्रद्धान करो, अनुभवात्मक श्रद्धान करो, इसी से तुम्हें सात तत्त्वों का समीचीन श्रद्धान तथा ज्ञान होकर निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होगी ।
प्रश्न- हमें सात तत्त्वों का समीचीन श्रद्धान कैसे हो सकता है ?
उत्तर- उक्त सात तत्त्वों के समीचीन ज्ञान से ही उनका समीचीन श्रद्धान हो सकता है, अन्य कोई उपाय नहीं है। ज्ञान के बिना होने वाली श्रद्धा समीचीन श्रद्धा नहीं है, अन्ध श्रद्धा है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तो उक्त जीवादि सात तत्त्वों के समीचीन श्रद्धान से ही होती है।
प्रश्न- क्या जैनशास्त्रों में किसी प्रकार का कोई यम-नियम, जप-तप, मंत्र-तंत्रादि कुछ ऐसा बताया गया है, जिससे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो सके ?
उत्तर- नहीं, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का ऐसा कोई चामत्कारिक उपाय नहीं है। किसी भी प्रकार के शरीर-मन-वाणी की बाहरी क्रिया से सम्यग्दर्शन नहीं होता। किसी भी प्रकार के यम-नियमादि, मन्त्र-तन्त्र, जप-तप या व्रत-उपवास आदि से भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती । जैनशास्त्रों में जो यम-नियम, जप-तप आदि की