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आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में सम्यग्दर्शन
डॉ. वीरसागर जैन यह आलेख विद्वान् लेखक ने आचार्य कुन्दकुन्द के दार्शनिक वैशिष्ट्य विषयक संगोष्ठी में चर्चित विषय को माध्यम बनाकर प्रश्नोत्तर शैली में लिपिबद्ध किया है और इसके माध्यम से सम्यग्दर्शन विषयक शंकाओं का आचार्य कुन्दकुन्द के शास्त्रानुकूल समाधान प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया है परन्तु यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि आचार्य ज्ञान और चारित्र का महत्त्व कम नहीं कर रहे हैं अपितु सम्यग्दर्शन की नींव पर ही ज्ञान और चारित्र निर्भर करता है। आचार्य ने जिस चारित्र से भ्रष्ट होने की बात की है वह द्रव्य लिंगी का बाह्य चारित्र है। अन्यथा 'चारित्तं खलु धम्मो' के साथ संगति नहीं होगी। ज्ञान और चारित्र का सम्यक्पना सम्यग्दर्शन पर निर्भर है इसीलिए आचार्य ने अपेक्षा विशेष से ऐसा कहा है।
-सम्पादक आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यग्दर्शन पर जितना अधिक जोर दिया है उतना जोर देने वाला दूसरा कोई आचार्य दिखाई नहीं देता। सम्यग्दर्शन के विषय में उन्होंने यहाँ तक कह दिया है कि सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव ही वास्तव में भ्रष्ट है, सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव को निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती। चारित्र से भ्रष्ट जीव तो सिद्ध हो जाते हैं, किन्तु सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव कथमपि सिद्ध नहीं हो सकते।' इस प्रकार यहाँ उन्होंने चारित्र को भी गौण कर दिया है और ‘सीलपाहुड' आदि की अनेक गाथाओं (गाथा-क्रमांक १६,१७,३१ आदि) में ज्ञान को गौण कर दिया है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप त्रयात्मक मोक्षमार्ग में से भी आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यग्दर्शन को ही मुख्यता प्रदान की है- यह उनका बड़ा दार्शनिक वैशिष्ट्य है जिसे स्याद्वाद-पद्धति से देखना चाहिए। आचार्य कन्दकन्द ने सम्यग्दर्शन पर इतना अधिक बल प्रदान किया है कि इसके होने पर वे अन्य कुछ भी न होने पर भी सब कुछ हो गया मानते हैं और इसके हुये बिना अन्य बहुत कुछ होने पर भी वे कुछ नहीं हुआ मानते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार सम्यग्दृष्टि जीव मुक्त हो चुका है, कृतकृत्य हो चुका है, उसे अब कुछ भी करना शेष नहीं बचा है; रागादि सहित होते हुये भी वह रागादि-रहित ही है, वह शंका-कांक्षादि-सहित होते हुए भी पूर्णत: निःशंक और नि:कांक्ष है।