Book Title: Sramana 2011 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 47
________________ ३६ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक २ / अप्रैल-जून-२०११ प्रकार के माने गए हैं:- १. समचतुरस्र, २. न्यग्रोध-परिमण्डल (वटवृक्षवत्), ३. सादि (शाल्मलीवृक्षवत्) या साचीसंस्थान, ४. कुब्जकसंस्थान, ५. वामनसंस्थान तथा ६. हुण्डकसंस्थान। 'विपाकसूत्र' के सुखविपाक श्रुतस्कन्ध के दसवें अध्ययन में 'समचतुरस्र संस्थान' प्राप्ति के कारणों का सम्यक् प्रतिपादन किया गया है जिसके अनुसार मानव को इस संस्थान की प्राप्ति उत्कृष्ट दानादि कर्म के द्वारा प्राप्त होती है। सुबाहुकुमार, भद्रनन्दिकुमार, सुजातकुमार, जिनदासकुमार, धनपतिकुमार, महाबलकुमार, महाचन्द्रकुमार और वरदत्तकुमार को पूर्वभवों में किये गए दानादि कर्म के कारण ही समचतुरस्रसंस्थान की प्राप्ति हुई। दुःखविपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में निरूपित मृगापुत्र कथा से ज्ञात होता है कि वह इक्काई नामक माण्डलिक शासक के भव में अनेक दुष्कर्म कर हर्षित हुआ था, फलतः उसको उन्हीं पापकर्मों के विपाक के रूप में 'हुण्डकसंस्थान' की प्राप्ति हुई। इस संस्थान वाले की आकृति देखने में बीभत्स होती है। जिस प्रमाण में शरीर के अंग-उपांगों की रचना होनी चाहिए उसका इसमें अभाव होता है अर्थात् अंगोपांगों की आकृतियाँ मात्र होती हैं। शुभाशुभमिश्रित कर्म के उदय से उपर्युक्त दो संस्थानों को छोड़कर शेष संस्थानों की प्राप्ति होती है। रोगकारण- वैद्यकशास्त्र/आयुर्वेद के अनुसार वात-पित्त-कफ की विषमता से शरीर व्याधिग्रस्त होता है। परन्तु 'विपाकसूत्र' में वर्णित कथा प्रसंगों से ज्ञात होता है कि रोग का प्रबलतम कारण अशुभकर्मोदय है। अशुभ/पापकर्मोदय के अनेकविध-कारणों में जहाँ अन्याय, अत्याचार, पापाचार, विषयभोग सेवन आदि हैं वहीं मांसाहार का उपदेश, भले ही वह उपदेश उपचार हेतु ही क्यों न हो, स्वयं स्वाद लेकर मांसाहार करना आदि भी प्रमुख कारण है। मृगापुत्र' ने इक्काई माण्डलिक के भव में जनता पर अनेकविध अत्याचार किए, कर लगाया, पापकर्म करने वालों का पोषण किया। फलतः उसी भव में सोलह असाध्य रोगों से आक्रान्त हुआ। उम्बरदत्त ने धनवन्तरि वैद्य के भव में चिकित्सा के रूप में विशेष रूप से मांसाहार का उपदेश दिया और स्वयं भी मांसाहार किया, परिणामस्वरूप वह भी इक्काई माण्डलिकवत् अनेकविध असाध्य रोगों से ग्रस्त हुआ। शौर्यदत्त मत्स्य-मांस का विक्रय तो करता ही था साथ ही वह मत्स्य-मांस का बहुत शौकीन था। फलत: मछली का काँटा उसके गले में लग गया और असीम वेदना का पात्र बना। अंजूदेवी पृथ्वीश्री नामक गणिका के भव में विषयभोग में मग्न थी। फलतः 'योनिशूल' रोग से पीड़ित हो अपार कष्ट भोगा।

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