Book Title: Sramana 2011 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 33
________________ २२ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक २ / अप्रैल-जून-२०११ एकार्क पक्षद्विशराः त्रिदन्ताःत्रिदन्तपक्षद्विशराः कुसूर्याः। मृगादिषटेक्ऽहनि वृद्धिरेवं कर्कादिषटेक्ऽपचितिफ्लाद्याः।। मकरादि छ: राशियों में क्रमशः १.१२,२.५२,३.३२,३.३२,२.५२,१.१२ फल-विफल वृद्धि तथा उक्त क्रम से ही कादि छ: राशियों में प्रतिदिन ह्रास होता है। यद्यपि यह स्थूल मान है तथा सार्वदेशिक नहीं है फिर भी कुछ क्षेत्रों के लिये उपयोगी साबित हो सकता है। वस्तुत: ये सिद्धान्त जैन ज्योतिष के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी व्यवहार में नहीं हैं। यही कारण है कि इन सिद्धान्तों का अधिक प्रचारप्रसार नहीं हो सका। इन सिद्धान्तों पर सोपपत्तिक विचार करने की महती आवश्यकता है क्योंकि सरल सिद्धान्त को छोड़कर इस प्रकार के दुरूह सिद्धान्त को अपनाने के मूल में कोई न कोई महत्त्वपूर्ण उद्देश्य रहा होगा जिसका ज्ञान सतत् जैन ज्योतिष के मन्थन से ही सम्भव है। सन्दर्भ सूची १. लोकानामन्तकृत्काल: कालोऽन्यः कलनात्मकः। स द्विधा स्थूलसूक्ष्मत्वान्मूर्तश्रवामूर्त संज्ञकः।। सूर्यसिद्धान्त (मध्यमाधिकार) २. ब्राह्मं दिव्यं तथा पैन्यं प्राजापत्यच्च गौरवम्। सौरच्च सावनं चान्द्रमाक्षं मानानि वै नव।। सूर्यसिद्धान्त ३. वारप्रवृत्तिः प्रग्देशे क्षपार्धेऽभ्यधिके भवेत्। तद्देशान्तर-नाडीभिः पश्रवादूने विनिर्दिशेत्।। सूर्यसिद्धान्त १.६६ ४. सि. शिरोमणि म.अ. ५. विच्छिअ-कुम्भाइ तिये निसिमुहि, विस धणुहि कक्कि तुलि मझे। मक-मिहुण-कन्न-सिंहे, निशि अंते संकमइ वारो।। ६. दिन शु.दी.पृ.१७

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