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जैन दर्शनानुसार वर्तमान में धर्मध्यान सिद्धि के प्रमाण : ३१ ४. संस्थान विचय- लोक के आकार और उसकी दशा का चिन्तन करना संस्थान विचय धर्मध्यान है। सम्यक् दृष्टि जीव, पञ्चम काल के योगी इस प्रकार धर्मध्यान के माध्यम से अपने कर्मों की निर्जस करते हुए मोक्ष-मार्ग पर अचल रूप से चलते रहते हैं। पञ्चम काल में धर्मध्यान जो शंकाएँ हमारे मन में उठती हैं, उन शंकाओं को जैनाचार्य पूर्व में ही उठाकर उनका समाधान भी टीकाओं में करते आए हैं। द्रव्यसंग्रह की टीका में इस प्रकार का शंका-समाधान द्रष्टव्य है।" तत्त्वसार में आचार्य देवसेन कहते हैं'अर्थात् आज भी रत्नत्रयधारी मनुष्य आत्मा का ध्यान कर स्वर्गलोक को जाते हैं
और वहाँ से च्युत होकर उत्तम मनुष्य कुल में जन्म लेकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं।'२० तत्त्वदेशनाकार लिखते हैं. 'ऐसा मत मान लेना कि पञ्चमकाल में धर्मध्यान नहीं होता, ऐसी शंका भी मत कर लेना। संयम और साधना पर अविश्वास उसे ही होता है जो संयम और साधना से रिक्त होता है। जो विषय भोगों का कीड़ा है, उसे संयम नहीं दिखता। अपने असंयम और विषय-कषायों के पोषण के लिए चतुर्थकाल जैसा कार्य करता है।' मोक्षपाहुड में आचार्य कुन्दकुन्द स्पष्ट उद्घोषणा कर रहे हैं२१इस भरत क्षेत्र में दुषमकाल में भी आत्मस्वभाव स्थित साधु को धर्मध्यान होता है जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी है। तत्त्वदेशनाकार कहते हैं- 'धर्मध्यान तो पञ्चम काल के अन्त तक होगा और धर्मध्यान को मानने वाले श्रावक और साधु दोनों होंगे। जो इस बात को नहीं मानता है उसे भगवान् कुन्दकुन्द स्वामी ने मिथ्यादृष्टि कहा है। इसलिए यदि शाश्वत सुख को चाहते हो तो राग, द्वेष और मोह को छोड़कर सदा ध्यान का अभ्यास करो और अपने आत्मा का ध्यान करो।' २२ अष्टपाहुड का उल्लेख करते हुए तत्त्वदेशनाकार लिखते हैं कि 'आज भी तीन रत्नों से युक्त निर्ग्रन्थ मुनि आत्मा का ध्यान कर स्वर्गलोक प्राप्त कर लेता है। वर्तमान में भी मुनि उत्कृष्ट साधना कर लें तो लोकान्तिक देवों के पद को प्राप्त होते हैं और वहाँ से च्युत होकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं । गुणस्थानों की अपेक्षा धर्मध्यान जिनागम में वास्तविक धर्मध्यान मिथ्यादृष्टि को नहीं होता- ऐसा कहा है। ज्ञानार्णव में कहा गया है कि जो पुरुष साक्षात् रत्नत्रय को प्राप्त होकर ध्यान करना चाहता