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३२ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक २ / अप्रैल-जून-२०११
है, वह मूर्ख आकाश के फूलों से बन्ध्यापुत्र के लिए सेहरा बनाना चाहता है। दृष्टि की विकलता से वस्तु समूह को अपनी इच्छानुसार ग्रहण करने वाले मिथ्यादृष्टियों के ध्यान की सिद्धि स्वप्न में भी नहीं होती है। सिद्धान्त में ध्यान मात्र मिथ्यादृष्टियों के ही नहीं निषेधते हैं, किन्तु जो जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा के प्रतिकूल हैं तथा उनका चित्त चलित है और जैन साधु कहलाते हैं, उनके भी ध्यान का निषेध किया जाता है, क्योंकि उनके ध्यान की सिद्धि नहीं होती
रत्नत्रयमासाद्य यः साक्षाद्धयातु मिच्छति । खपुष्पैः कुरुते मूढः स बन्ध्यासुतशेखरम् ।। दुर्दृशामपि न ध्यानसिद्धिः स्वप्नेऽपि जायते । गृह्णतां दृष्टिवैकल्याद्वस्तुजातं यदृच्छयी ||८| ध्यानतंत्रं निषेध्यन्ते नैते मिथ्यादृशः परम् । मुनयोऽपि जिनेशाज्ञाप्रत्यनीकाश्चलाशयाः ।। ३० ।।
सर्वार्थसिद्धि के अनुसार धर्मध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवों को होता है । २४
राजवार्तिक में भी कहा है कि श्रेणी चढ़ने से पूर्व धर्मध्यान होता है‘श्रेण्यारोहणात्प्राग्धर्म्यं’१५ धवला में चतुर्थ गुणस्थान से दसवें गुणस्थान तक धर्मध्यान की प्रवृत्ति स्वीकार की गई है -
असंजदसम्मादिट्ठि संजदासंजदपामत्त संजदअप्पमत्तसंजद - अपुव्वसंजदअणियट्टिसंजद - सुहुमसांपराइयखवगोव - सामएसु धम्मञ्झाणस्य पवृत्ति होदि ति जिणावएसादो २६ ।
तत्त्वदेशनाकार लिखते हैं, 'चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव के उपचार से धर्मध्यान कहा है। छठवें गुणस्थान में भी धर्मध्यान नहीं कहा है, क्योंकि यहाँ भी आर्त्तध्यान का अंश होता है। शुद्ध धर्मध्यान तो सातवें गुणस्थान में ही होता है । ' "
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इस प्रसंग में राजवार्तिककार का एक शंका समाधान द्रष्टव्य है १८ - कश्चिदाहधर्मप्रमत्तसंयत्तस्यैवेति; तन्न; किं कारणम् ? पूर्वेषां विनिवृत्तिप्रसङ्गात्। असंयतसम्यग्दृष्टि - संयतासंयत- प्रमत्तसंयतानामपि धर्मध्यानमिष्यते सम्यक्त्वप्रभवत्वात् ।
इस प्रकार यहाँ ध्यान, धर्मध्यान तथा पञ्चमकाल में भी धर्मध्यान की सिद्धि तथा उसकी सार्थकता के कुछ प्रमाण हमने देने का प्रयास किया है। जिनागम में पग