Book Title: Sramana 2011 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 35
________________ २४ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक २ / अप्रैल-जून-२०११ आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार संसारी और मुक्त जीवों में एक ही अन्तर है- जिसे सम्यग्दर्शन हो गया वह मुक्त है चाहे वह कैसा भी हो, कोई भी हो, पक्षी ही क्यों न हो और जिसे सम्यग्दर्शन नहीं हो पाया वह संसारी है; चाहे वह कैसा भी हो, कोई भी हो, सर्वागमधारी मुनि ही क्यों न हो। आचार्य कुन्दकुन्द ने अन्य जैनाचार्यों की भाँति मोक्षमार्ग को गुणस्थानों के १४ सोपानों में विभाजित करके प्रस्तुत नहीं किया है; किन्तु दो ही भागों में सारे संसार और मोक्ष की पूरी व्यवस्था को स्पष्ट कर दिया है। उनके अनुसार “सम्यग्दृष्टि मुक्त है और मिथ्यादृष्टि संसारी" बस इतना ही सम्पूर्ण संविधान है। प्रश्न- आचार्य कुन्दकुन्द ने रागादि-सहित होते हुये भी सम्यग्दृष्टि को रागादिरहित कैसे कहा? उत्तर- आचार्य कुन्दकुन्द का कहना है कि सम्यग्दृष्टि रागादि-सहित होता ही नहीं, वह भोग भोगता ही नहीं, घर में रहता ही नहीं; रागादि करता ही नहीं; उसे शंकाकांक्षादि होते ही नहीं, वह तो जल से भिन्न कमलवत् सर्वथा नि:शंक और निर्भय होता है। प्रश्न- सर्वागमधारी मुनि को 'अज्ञानी' और 'संसारी' कैसे कहा? उत्तर- आचार्य कुन्दकुन्द का मानना है कि जो जीव अभी मिथ्यादर्शन सहित है, वह परमार्थ से मुनि हुआ ही नहीं है, उसके अभिप्राय में तो अभी पूर्णत: रागादि बसते हैं; अत: वह तो अज्ञानी और संसारी ही है, चाहे वह बाहर में कितना ही बड़ा ज्ञानी-ध्यानी-तपस्वी दिखाई दे। प्रश्न- क्या कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने गुणस्थान के १४ सोपानों को और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को गौण करके मात्र सम्यग्दर्शन पर ही सर्वाधिक बल प्रदान किया है? उत्तर- दरअसल, यह जीव बाहर में बहुत कुछ कर लेता है, बड़ा ज्ञानी बन जाता है, बड़ा चारित्रवान् भी बन जाता है, पर सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर पाता, अत: उसका सारा ज्ञान-चारित्र निष्फल ही रह जाता है। इसके विपरीत यदि कोई जीव सम्यग्दर्शन की प्राप्ति कर ले तो उसे ज्ञान-चारित्र भी एक न एक दिन अवश्य ही प्राप्त हो जाएँगे- इसमें कोई सन्देह नहीं है। जिस प्रकार जिस वृक्ष की जड़ कट गयी हो, उसके पत्ते हरे-भरे /जीवित दिखें तो भी उसे मृत ही समझना चाहिए और जिस वृक्ष की जड़ न कटी हो, उसके पत्ते टूट गये हों तो भी उसे जीवित ही समझना

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