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तत्त्वार्थवार्तिक में प्रतिपादित सप्तभंगी एवं स्याद्वाद : १७
अथवा उस मध्यवर्ती घट पर्याय में भी प्रतिक्षण द्रव्य परिणामों के उपचय एवं अपचय के भेद से अर्थान्तर की उत्पत्ति है अर्थात् प्रतिक्षण नवीन-नवीन पर्याय उत्पन्न होती है, इसलिए ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से एक क्षणवर्ती घट ही स्वात्मा है तथा अतीत एवं अनागतकालीन पर्यायों की अपेक्षा अघट है।१४ अथवा उस वर्तमानकालीन विषय में परस्परोपकारवर्ती रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि समुदायात्मक पृथुबुध्नोदराकार (विशालता और वृत्त के मूल आदि के समान गोलाकार) आदि अनेक पर्यायों में पृथुबुध्नोदराकार स्वात्मा है और इतर रूप-रसादि परात्मा है।१५ अथवा घटाकार में रूप-रस आदि सभी गुण हैं परन्तु घट चक्षु के द्वारा जाना जाता है। इस घट व्यवहार में रूप की प्रधानता से घट का ग्रहण होता है इसलिए रूप आत्मा है तथा रसादि परात्मा है।२६ । अथवा शब्दभेद होने पर अर्थभेद अवश्य होता है अत: घट-कुट आदि शब्दों में भी अर्थभेद है। जैसे घटन क्रिया (जलधारण) के कारण घट है और कुटिल होने के कारण कुट है। यहाँ घटनक्रिया परिणति लक्षण शब्द की वृत्ति करना युक्त है। अर्थात् घट जिस समय घटन क्रिया में परिणत हो उसी समय उसे घट कहना चाहिए। इसलिए घट का घटन क्रिया में कर्ता रूप से उपयुक्त होने वाला स्वरूप स्वात्मा है, अन्य कौटिल्यादि भाव परात्मा है।१७ अथवा अन्तरंग एवं अहेय होने से घट शब्द प्रयोग के अनन्तर उत्पद्यमान घटज्ञानाकार उपयोग स्वात्मा है और बाह्य घटाकार परात्मा है।८ अथवा चैतन्य शक्ति के दो आकार होते हैं- ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार। प्रतिबिम्ब शून्य दर्पण के शुद्ध मध्यभाग के समान तो आत्मा ज्ञानाकार है और प्रतिबिम्ब परिणत दर्पण के समान उपयोग युक्त आत्मा ज्ञेयाकार है। उसमें ज्ञेयाकार स्वात्मा है, क्योंकि घट व्यवहार घटाकार ज्ञान से ही होता है। ज्ञानाकार परात्मा है, क्योंकि वह सर्वसाधारण है।१९ इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य अकलङ्कदेव ने अपने तत्त्वार्थवार्तिक में विभिन्न दृष्टिकोणों से जैनदर्शन के सप्तभङ्गी सिद्धान्त का सम्यक विवेचन किया है और इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वस्तु तो एक है और जैसी है वैसी ही रहेगी किन्तु हमारे देखने के कोण पृथक्-पृथक् हैं तथा जहाँ हमें जो विवक्षित है वह मुख्य हो जाता है और शेष सारे धर्म गौण हो जाते हैं।