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तत्त्वार्थवार्तिक में प्रतिपादित सप्तभंगी एवं स्याद्वाद
प्रो० कमलेश कुमार जैन लेखक ने इस आलेख में स्याद्वाद एवं सप्तभंगी सिद्धान्त को तत्त्वार्थवार्तिक के सन्दर्भ में मण्डित करने का सफल प्रयास किया है। वस्तुतः स्याद्वाद में प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द के अर्थ को नहीं समझने के कारण जैनेतर दार्शनिकों ने इसे भ्रान्ति एवं विरोधाभासी सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया है। आगमों में जिस रूप में स्याद्वाद एवं सप्तभंगी-नय की अवधारणा मिलती है यदि हम उसे उसी रूप में लें तो विरोध समाप्त हो जायेगा। सप्तभंगी के विविध रूपों को तत्त्वार्थवार्तिक में किस रूप में चित्रित किया है? इस लेख में विशेष कथन है।
-सम्पादक आचार्य उमास्वामीकृत तत्त्वार्थसूत्र सूत्रशैली में लिखा गया जैनधर्म-दर्शन का एक अत्यन्त प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है क्योंकि इसमें जिनागम के मूल तत्त्वों का संक्षेप में समावेश किया गया है। इस सूत्र-ग्रन्थ पर अनेक आचार्यों ने संस्कृत टीकाएँ लिखी हैं जिनमें आचार्य पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि, जैन न्याय के प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंकदेवभट्ट कृत तत्त्वार्थवार्तिक एवं आचार्य विद्यानन्दीकृत तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार-ये तीनों संस्कृत टीकायें प्रमुख हैं। क्योंकि ये टीकायें यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र पर लिखी गयी हैं तथापि इनका स्वतंत्र महत्त्व है और ये तीनों अपने स्वतंत्र नाम से जानी भी जाती हैं। ये तीनों टीकायें उत्तरोत्तर विस्तृत हैं और तत्त्वार्थसूत्र के विषय को न केवल स्पष्ट करती हैं, अपितु पूर्वपक्ष के रूप में अन्य भारतीय दर्शनों का समावेश करते हये उनकी सम्यक मीमांसा भी करती हैं, जिससे पाठकों को तत् तत् दर्शनों के विविध सिद्धान्तों का भी सहज बोध हो जाता है। ईसा की आठवीं शती के बहुश्रुत विद्वान् आचार्य अकलंकदेव कृत तत्त्वार्थवार्तिक का दूसरा नाम राजवार्तिक भी है। तत्त्वार्थवार्तिककार ने पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धि नामक संस्कृत टीका को प्रायः अपने में समाहित कर लिया है, जिससे दोनों टीकाएँ नीर-क्षीरवत् एकमेव हो गयी हैं। आचार्य अकलंकदेव ने सर्वार्थसिद्धि की अनेक पंक्तियों का वार्तिक के रूप में प्रयोग किया है, जिससे वे न केवल तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याता हैं, अपितु सर्वार्थसिद्धि के भी व्याख्याता हैं। अत: आचार्य अकलंकदेव जैन न्याय किंवा अनेकान्तवाद के प्रतिष्ठापक हैं, अतः उन्होने पदे-पदे जैनेन्द्रव्याकरण के 'अनेकान्तात्' इस सूत्र का प्रयोग किया है और जिनागम के प्रत्येक सिद्धान्त की अनेकान्तवाद के माध्यम से सिद्धि की है।