Book Title: Sramana 2011 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ तत्त्वार्थवार्तिक में प्रतिपादित सप्तभंगी एवं स्याद्वाद : १३ हूँ उससे मेरा यह दृढ़ विश्वास हुआ है कि यदि वे इस धर्म के मूलग्रन्थों को पढ़ने का कष्ट उठाते तो जैन धर्म का विरोध करने की कोई बात ही नहीं मिलती।''२ इसी प्रकार हम देखते हैं कि जैन पारिभाषिक शब्दावली को न जानने के कारण अनेक वरिष्ठ जैनेतर विद्वानों से अनजान में त्रुटि हो गयी और उन्होंने स्याद्वाद जैसे जैन-सिद्धान्त का खण्डन कर दिया। वस्तुत: स्याद्वाद में प्रयुक्त स्यात् पद को संस्कृत भाषा की 'अस्' धातु के विधिलिङ्ग लकार के प्रथम पुरुष का एकवचन मान लेने से यह त्रुटि हुई है। जबकि स्याद्वाद में प्रयुक्त स्यात् पद अव्यय है, जिसका अर्थ है किसी वस्तु के गुण-धर्मो का सापेक्ष दृष्टि से किया जाने वाला कथन। आचार्य उमास्वामी ने अपने तत्त्वार्थसूत्र में वस्तु के स्वरूप को जानने के दो उपायों का उल्लेख किया है- एक प्रमाण और दूसरा नया प्रमाण वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप का कथन करता है, जबकि नय वस्तु के एकदेश स्वरूप का कथन करता है। आचार्य अकलङ्कदेव ने अपने तत्त्वार्थवार्तिक में प्रमाण और नय की विस्तृत व्याख्या की है। उनके अनुसार अधिगम दो प्रकार का है- स्वाधिगम और पराधिगम। स्वाधिगम हेतु ज्ञानात्मक है। इसके दो भेद हैं- प्रमाण और नय। पराधिगम हेतु वचनात्मक है। वह वचनात्मक हेतु, स्याद्वाद नय से परिस्कृत श्रुत नामक प्रमाण के द्वारा प्रतिपादित जीवादि पदार्थ तथा उनकी प्रत्येक पर्याय सप्तभङ्गी रूप से जानी जाती है। तात्पर्य यह है कि सप्तभङ्ग वाले जीवादि पदार्थ एवं उनकी प्रत्येक पर्याय का कथन वचनात्मक श्रुतज्ञान के द्वारा होता है। वस्तु का यथार्थ ज्ञान कराने में सप्तभङ्गी की भूमिका अपरिहार्य है। अत: यह सप्तभङ्गी क्या है? इसका उत्तर देते हुए आचार्य अकलङ्कदेव कहते हैं कि 'किसी व्यक्ति के द्वारा प्रश्न किये जाने पर एक वस्तु में परस्पर विरोधी विधि और प्रतिषेध रूप दो धर्मों का बिना किसी विरोध के एक साथ कथन करना सप्तभङ्गी है।'५ इसी बात को स्पष्ट करते हुए प्रो. उदयचन्द्र जैन लिखते हैं कि- प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं और प्रत्येक धर्म का कथन अपने विरोधी धर्म की अपेक्षा से सात प्रकार से किया जाता है। प्रत्येक धर्म का सात प्रकार से कथन करने की शैली का नाम ही सप्तभङ्गी है। उदाहरण स्वरूप हम एक ही घट रूप वस्तु का मुख्य और गौण की अपेक्षा से सात प्रकार से कथन कर सकते हैं। जैसे१. स्वचतुष्टय (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव) की अपेक्षा से घट है (स्याद्घट:)।

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120