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१४ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक २ / अप्रैल-जून-२०११ २. पर चतुष्टय की अपेक्षा से घट नहीं है (स्यादघट:)। ३. स्वचतुष्टय की अपेक्षा से घट है और पर चतुष्टय की अपेक्षा से घट
नहीं है यदि क्रमश: कथन करें। (स्याद् घटश्चाऽघटश्च)। ४. युगपत् कथन की अपेक्षा से घट अवक्तव्य है (स्यादवक्तव्यः घट:)। ५. स्व० की अपेक्षा से घट है और युगपत् कथन की अपेक्षा से घट
अवक्तव्य है (स्याद् घटाश्चाऽवक्तव्यश्च)। ६. पर० की अपेक्षा से घट नहीं है और युगपत् कथन की अपेक्षा से
अवक्तव्य भी है (स्यादघटश्चावक्तश्च)। ७. क्रमश: यदि कथन करें तो स्व० की अपेक्षा से घट है, पर० की अपेक्षा से घट नहीं है और युगपत् कथन की अपेक्षा से घट अवक्तव्य है
(स्याद् घटश्चाघटश्चाऽवक्तव्यश्चेति)। मूलत: भङ्ग तीन ही हैं- स्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य। इन तीनों का विस्तार करने पर कुल सात भङ्ग हो जाते हैं। एक लौकिक उदाहरण के माध्यम से हम इस तथ्य को समझ सकते हैं। जैसे किसी वैद्य के पास दवाएँ बनाने के लिए तीन पदार्थ हैं- हरड़, बहेड़ा और आँवला। इन तीनों पदार्थों से स्वतंत्र एवं संयुक्त रूप से मोटे तौर पर अधिक से अधिक सात दवाएँ निर्मित की जा सकती हैं१. हरड़, २. बहेड़ा, ३. आँवला, ४. हरड़-बहेड़ा, ५. बहेड़ा-आँवला, ६. आँवला-हरड़, ७. हरड़-बहेड़ा-ऑवला। इनमें प्रथम तीन दवाएँ प्रत्येक स्वतंत्र पदार्थ से निर्मित हैं। पुनः तीन दवाएँ दोदो पदार्थों के समूह से निर्मित हैं और अन्तिम दवा तीनों पदार्थों के समूह से निर्मित है। इस प्रकार तीन पदार्थों से सात दवाएँ निर्मित की जा सकती हैं, आठ-नौ आदि नहीं। इसी प्रकार वस्तु व्यवस्था के सम्बन्ध में कथन किया जा सकता है। अर्थात् वस्तु का कथन तीन प्रकार से स्वतंत्र रूप से किया जा सकता है। १. वस्तु है, २. वस्तु नहीं है और ३. वस्तु अवक्तव्य है। अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप स्वचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु है, यह प्रथम भङ्ग अथवा प्रकार है। परचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु नहीं है, यह द्वितीय भङ्ग है और युगपद् विवक्षा से वस्तु के कथन की सामर्थ्य न होने से वस्तु अवक्तव्य है, यह तृतीय भङ्ग है। इन्हीं तीन भङ्गों को जब हम परस्पर दो-दो के जोड़े बनाकर कथन करते हैं तो तीन भङ्ग और बन जाते हैं। जैसे- प्रथम और द्वितीय- इन दो भङ्गों को मिला देने अर्थात् स्वचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु है और परचतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु नहीं है, यह चतुर्थ भङ्ग है। इसी