Book Title: Sramana 2011 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ ६ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक २ / अप्रैल-जून-२०११ टीकाकार) आत्मसिद्धि के प्रकरण में आत्मा को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय सिद्ध करते हैं। यहाँ एक प्रश्न है कि आत्मा कर्ता होकर उसी समय संवेदन का कर्म कैसे हो सकता है? इसका उत्तर वे स्याद्वाद के माध्यम से देते हैं- 'लक्षणभेद से दोनों रूप हो सकते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है। स्वतंत्र आत्मा कर्ता है और ज्ञान का विषय होने से वह कर्म भी है।'१५ बौद्धदर्शन में क्षणिकवाद स्वीकृत है। वहाँ शून्याद्वैतवाद अथवा विज्ञानाद्वैतवाद की सिद्धि बिना स्याद्वाद के सम्भव नहीं है। वहाँ भी द्विविध सत्य को स्वीकार किया जाता है- परमार्थसत्य और संवृति सत्य (व्यवहार-सत्य)। यह सिद्धान्त जैनों के निश्चय नय और व्यवहार नय के समान है। प्रतिक्षण परिवर्तनशील वस्तुओं की अविच्छिन्न धारा की सिद्धि, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, बन्ध-मोक्ष की व्यवस्था आदि बिना स्याद्वाद माने सम्भव नहीं है। भगवान् बुद्ध को शाश्वतवाद से यदि भय था तो उच्छेदवाद भी उन्हें अभीष्ट नहीं था। वस्तु को त्रैकालिक इसलिए माना जाता है कि वह अतीत से वर्तमान तक तथा आगे भी प्रवहमान रहती है। कहा है यस्मिन्नेव हि सन्ताने आहिता कर्मवासना। फलं तत्रैव बध्नाति कार्पासे रक्तता यथा।। यह कथन स्याद्वाद के बिना सङ्गत नहीं हो सकता है। वस्तुतः द्रव्य से अन्वय का ज्ञान होता है और पर्याय से व्यावृत्तज्ञान (भेदज्ञान) का। द्रव्य एक होता है और पर्यायें कालक्रम से अनेक होती हैं। वैशेषिकों की तरह द्रव्य, गुण, कर्म आदि स्वतन्त्र पदार्थ नहीं हैं। सर्वथा अभेद मानने वाले अद्वैतवाद में विवर्त, विकार या भिन्न-प्रतिभास सम्भव नहीं है। 'सत्' सामान्य से जो सब पदार्थों में ऐक्य स्थापित किया जाता है वह व्यवहारार्थ परम संग्रहनय का एकत्व है, जो कि उपचरित है, मुख्य नहीं। शब्द प्रयोग की दृष्टि से एक द्रव्य में विवक्षित धर्म-भेद और दो द्रव्यों में रहने वाला परमार्थ सत्-भेद, दोनों भिन्न-भिन्न हैं। पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व और विपक्षासत्व- ये तीनों रूप भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक ही हेतु में माने जाते हैं। वहाँ सपक्षसत्त्व से विपक्षासत्व का ग्रहण जैसे नहीं माना जाता है वैसे ही प्रत्येक वस्तु में स्वरूपास्तित्व से पर-नास्तिक का भी ग्रहण नहीं माना जा सकता है। अत: उसका पृथक् कथन आवश्यक है। अन्वय-ज्ञान और व्यतिरेकज्ञानरूप प्रयोजन तथा कार्य भी पृथक्-पृथक् हैं। वस्तु में सर्वथा भेद मानने वाले बौद्धों के यहाँ पररूप से नास्तित्व माने बिना स्वरूप की प्रतिनियत व्यवस्था

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120