________________
सभी विरोधों का समाधान है: अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद
: ७
नहीं बन सकती है। प्रतिनियत सन्तान-व्यवस्था से स्वयं सिद्ध है कि वस्तु उत्पादव्यय की निरन्वय परम्परा मात्र नहीं है। शान्तरक्षित परलोक परीक्षा में ज्ञानादि सन्तति को अनादि-अनन्त स्वीकार करके परलोक की व्याख्या करते हैं
उपादानतदादेयभूतज्ञानादिसन्ततेः। काचिनियतमर्यादावस्थैव परिकीर्त्यते।। तस्याश्चानाद्यनन्तायाः परः पूर्व इहेति च।।
(तत्त्वसंग्रह, १८७२-७३) इस तरह बौद्ध दर्शन सर्वथा एकान्तवादी कैसे हो सकता है? सांख्यदर्शन प्रकृति को परिणामी नित्य मानता है। वह प्रकृति तत्त्व कारणरूप से एक होकर भी अपने महदादि विकारों की दृष्टि से अनेक है, नित्य होकर भी अनित्य है। योगभाष्य (३.१३) में परिणामवाद का अर्थ किया है- 'अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्तौ धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणामः' स्थिर द्रव्य के पूर्वधर्म की निवृत्ति होने पर नवीन धर्म की उत्पत्ति होना परिणाम है। बिना सापेक्षवाद के महदादितत्त्व प्रकृतिविकृति उभयरूप कैसे हैं? न्याय-वैशेषिक दर्शन के तर्कसंग्रह में पृथ्वी द्रव्य का निर्वचन करते हुए कहा है'तत्र गन्यवती पृथ्वी। सा द्विविधा-नित्यानित्या च। नित्या परमाणुरूपा, अनित्या कार्यरूपा'। इसी प्रकार जल, तेजस् और वायु द्रव्यों को नित्यानित्य माना है।१७ परसामान्य-अपरसामान्य, कालकृत परत्वापरत्व आदि भी सापेक्षता को लिए हुए हैं। अनेकान्त में सम्भाव्य दोषों का निराकरण इस तरह देखा जाता है कि सभी दर्शनों के आचार्यों ने एक ही वस्तु में विरोधी धर्मों को किसी न किसी रूप में सापेक्षवाद से अवश्य स्वीकार किया है। स्याद्वादअनेकान्तवाद पर मुख्य रूप से दो दोष (संशय और विरोध) बतलाए जाते हैं। तत्त्वसंग्रह में संकर और श्रीकण्ठभाष्य में अनवस्था दोष भी बतलाए हैं, परन्तु जैन आचार्य अकलङ्कदेव ने सम्भावित आठ दोषों की उपस्थापना करके उनका खण्डन किया है। वे दोष हैं- १. संशय, २. विरोध, ३. वैयधिकरण्य, ४. संकर, ५. व्यतिकर, ६. अनवस्था, ७. अप्रतिपत्ति और ८. अभाव।१८ एक ही दृष्टि से दो विरोधी धर्म स्वीकृत न होने से विरोध नहीं है। जैसे- वैशेषिक दर्शन में पृथ्वीत्वादि अपर सामान्य स्वव्यक्तियों में अनुगत होने के कारण सामान्य