Book Title: Sramana 2011 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 19
________________ ८ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक २ / अप्रैल-जून-२०११ रूप है तथा जलादि से व्यावर्तक होने से विशेष भी है। अत: वस्तु के दोनों धर्म पृथक्-पृथक् दृष्टिकोणों से सर्वथा निश्चित रूप में प्रतीत होने से संशय नहीं है। एक ही अखण्ड वस्तु में अनन्त धर्मों का संकर होने पर भी उनकी प्रतीति दृष्टिभेद से होती है। अत: संकर दोष नहीं है। 'व्यतिकर' का अर्थ है 'परस्पर विषयगमन'। यह तभी सम्भव है जब पर्याय और द्रव्य दोनों दृष्टियों से द्रव्य को नित्यानित्य माना जाय, परन्तु ऐसा न मानने से व्यतिकर दोष भी नहीं है। 'द्रव्यदृष्टि' से वस्तु नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य है' यह निश्चित है। 'वैयधिकरण्य दोष भी नहीं है; क्योंकि सभी धर्म एक ही आधार में जाने जाते हैं, जैसे एक ही आकाश-प्रदेश में सभी द्रव्यों की सत्ता है। एक धर्म में अन्य धर्म की सत्ता न मानने से अनवस्था दोष भी नहीं है। किञ्च, धर्मों का एक रूप मानने से एकान्तत्व नहीं आता है; क्योंकि वस्तु अनेकान्तरूप है तथा सम्यगेकान्त का अनेकान्त से कोई विरोध नहीं है, धर्मधर्मिभाव सापेक्ष है; क्योंकि जो अपने आधारभूत धर्मी की अपेक्षा धर्म होता है, वह अपने आधेयभूत धर्मों की अपेक्षा धर्मी हो जाता है। इस तरह प्रमाण से निर्बाध प्रतीति होने के कारण न तो अप्रतीतत्व दोष है और न अभाव दोष है। अत: स्याद्वाद या अनेकान्तवाद न तो संशयवाद है, न कदाचित्वाद है, न सम्भववाद है, अपितु सापेक्षात्मक निश्चयवाद है, जिसे जैन दर्शन में अनेकान्तवाद या स्याद्वाद के नाम से कहा जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि सभी दर्शन किसी न किसी रूप में सापेक्षता के सिद्धान्त को यथावसर स्वीकार करके अपने स्वीकृत सिद्धान्तों की व्याख्या करते हैं, परन्तु एकान्तवाद के आग्रह को नहीं छोड़ पाते हैं। इतना अवश्य है कि भगवान महावीर ने सापेक्षता के सिद्धान्त का जितनी सूक्ष्मता से अध्ययन किया है, वैसा किसी ने नहीं किया है। निश्चित सापेक्षवाद के प्रतिपादक अनेकान्त एवं स्याद्वाद को ऊपरी तौर पर ही लोगों ने समझकर उसकी आलोचना की है। यह एक ऐसा सिद्धान्त है; जिसके द्वारा विभिन्न मतवादों का नयदृष्टि से समन्वय करके विश्व-बन्धुत्व की स्थापना की जा सकती है। 'कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा' की तरह अनेकान्तवाद अनिश्चयवाद या संशयवाद नहीं है। भगवान् महावीर का अनेकान्तवाद यही बतलाता है कि दृष्टि एकाङ्गी मत करो, वस्तु को सभी दृष्टिकोणों से देखो। किसी एक दृष्टि को सही और दूसरी को मिथ्या मत कहो। साथ ही यह भी कहा कि एक ही दृष्टि से वस्तु उभयविध नहीं है। वस्तु की उभयरूपता विभिन्न दृष्टियों से है। अत: अनेकान्तवाद निश्चयात्मकता का सिद्धान्त है। भारतीय दर्शनों का सामान्यत: समावेश जैन नयानुसार निम्न प्रकार से समायोजित किया जा सकता है

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