Book Title: Sramana 2011 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 15
________________ ४ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक २ / अप्रैल-जून-२०११ और दोनों अवस्थाओं में द्रव्यरूप से सदा रहना ध्रुवता है। वस्तु की ऐसी त्रयात्मकता को जैनाचार्यों ने तथा मीमांसकाचार्य कुमारिलभट्ट ने भी स्वीकार किया है। पातञ्जल-महाभाष्य तथा योगभाष्य में भी वस्तु की त्रयात्मकता को स्वीकार किया गया है। गुण-गुणी में, सामान्य-सामान्यवान् में, कारण-कार्य में, अवयव-अवयवी में सर्वथा भेद मानने पर गुण-गुणीभावादि नहीं बन सकते; क्योंकि अमुक गुण का अमुक गुणी से नियत सम्बन्ध है, यह कैसे बतलाया जा सकता है? एक अवयवी अपने अवयवों में सर्वात्मना रहता है या एकदेश से? दोनों पक्षों में दूषण है; क्योंकि यदि पूर्ण रूप से रहता है तो जितने अवयव होंगे उतने ही अवयवी होंगे। यदि एकदेश से रहता है तो जितने अवयव के प्रदेश हैं उतने अवयवी मानने पड़ेंगे। सर्वथा अभेद पक्ष में गुण-गुणी व्यवहार ही सम्भव नहीं है। अतः वस्तु को भेदाभेदात्मक मानना चाहिए; क्योंकि गुण और पर्याय को छोड़कर द्रव्य का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। अनेकान्त के सम्बन्ध में भ्रम-निवारण राहल सांकृत्यायन तथा डॉ० हर्मन यॉकोबी ने स्याद्वाद की सप्तभङ्गी (कथन के सात प्रकार) के चार भङ्गों (अस्ति, नास्ति, उभय, अनुभयरूप) की उत्पत्ति शब्दसाम्य के आधार पर सञ्जयवेलट्ठिपुत्त के उच्छेदवाद से मानी है, जो सर्वथा अनुचित है। सञ्जयवेलट्ठिपुत्त जिन प्रश्नों का समाधान नहीं करते उन्हें अनिश्चय कहकर छोड़ देते हैं। गौतम बुद्ध भी उन्हें अव्याकृत कहकर छोड़ देते हैं। भगवान् महावीर ने अनेकान्त सिद्धान्त के माध्यम से ऐसे सभी प्रश्नों का सयुक्तिक एवं सम्यक् उत्तर दिया है। हिंसा और अहिंसा में जितना अन्तर है उतना ही महावीर के स्याद्वाद और सञ्जयवेलट्ठिपुत्त के अनिश्चय सिद्धान्त (संशय तथा अज्ञान) में अन्तर है। डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी इण्डियन फिलासफी (जिल्द १, पृ० ३०५३०६) में स्याद्वाद को आपेक्षिक अर्धसत्य कहा है, जो सर्वथा भ्रामक है। कुछ इसी प्रकार की भ्रामक व्याख्या पं० बलदेव उपाध्याय (भारतीय दर्शन, पृ० १७३) एवं डॉ० देवराज (पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, पृ० ६५) जी ने भी की है। मेरा स्पष्ट विचार है कि एकान्तवादी दर्शन चाहे जितना अनेकान्तवाद या स्याद्वाद का खण्डन करें, परन्तु वे भी अपने सिद्धान्तों में समागत विरोधों की व्याख्या स्याद्वाद के माध्यम से ही करते हैं, जैसा कि पहले वस्तु की त्रयात्मकता के प्रसङ्ग में बतलाया गया है। स्व० महामहोपाध्याय डॉ० गंगानाथ झा तथा स्व० फणिभूषण अधिकारी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि शङ्कराचार्य जी ने स्याद्वाद को ठीक से समझा नहीं था

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