Book Title: Sramana 2011 04
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 14
________________ सभी विरोधों का समाधान है: अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद : ३ एक वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों का सद्भाव अनेकान्तवाद के विरोध में कहा जाता है कि वस्तु जब अस्तिरूप है तो नास्तिरूप कैसे है? वस्तु जब एक है तो अनेक कैसे हो सकती है? भावरूप है तो अभावरूप कैसे हो सकती है? छोटी है तो बड़ी कैसे हो सकती है? हलकी है तो भारी कैसे हो सकती है? अर्थात् परस्पर विरोधी धर्म एक वस्तु में कैसे रह सकते हैं? वस्तुतः निश्चित सापेक्षभाव से परस्पर विरोधी धर्म एक साथ रह सकते हैं। उसमें न तो कोई विरोध है न तो संशय। प्रत्यक्ष से वस्तु में जब हमें अनेक विरोधी धर्मों की स्पष्ट प्रतीति होती है तो उसमें संशय कैसा? घड़ा समग्र भाव से एक होकर भी अपने रूप, रस, गन्ध, स्पर्श की अपेक्षा तथा छोटा, बड़ा, हलका, भारी आदि अनन्त गुणों और धर्मों की अपेक्षा अनेक रूपों में दिखलाई पड़ता है। घड़ा अपने स्वरूप की अपेक्षा अस्तिरूप है तो स्वभिन्न पररूपों (घोड़ा, कपड़ा आदि) की अपेक्षा नास्तिरूप भी है। यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो घड़ा, कपड़ा, घोड़ा आदि में कोई भेद नहीं हो सकेगा। यहाँ नास्तित्व धर्म ही घड़े को घड़े के रूप में प्रतिष्ठित करता है तथा घोड़ा आदि अन्यों से पृथक् करता है। वस्तु की भावाभावात्मकता इसी तरह घटादि वस्तु भावरूप भी है और अभावरूप भी। यदि वस्तु को सर्वथा (द्रव्य और पर्याय दोनों अपेक्षाओं से) भावरूप ही स्वीकार किया जायेगा तो प्राग्भाव (कार्योत्पत्ति के पूर्व असत् होना), प्रध्वंसाभाव (कार्योत्पत्ति के बाद घटरूप पर्याय का अभाव) एवं अत्यन्ताभाव (एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का त्रैकालिक अभाव) कुछ भी सम्भव नहीं होगा। वस्तु में दोनों रूप पाये जाते हैं- स्व-अस्तित्व और परनास्तित्व। पर-नास्तित्वरूप को ही इतरेतराभाव (घट में पटादि का अभाव और पट में घटादि का अभाव) कहते हैं। इतरेतराभाव या अन्योन्याभाव स्वतंत्र पदार्थ नहीं है। दो पदार्थों के स्वरूप का प्रतिनियत होना ही एक का दूसरे में अभाव है जो तत्-तत् पदार्थों के स्व-स्वरूप ही होता है, मिथ्या नहीं। इसीलिए घोड़ा और ऊँट में सर्वथा अभेद नहीं माना जा सकता है। अन्यथा पूर्व जन्म के मृग और गौतम बुद्ध को एक मानकर मृग की भी पूजा प्राप्त होगी। अतः घोड़ा और ऊँट का सादृश्य एक जातीय होने से है, एक सत्ता का होने से नहीं। यदि वस्तु को सर्वथा अभावात्मक या सर्वथा शून्य माना जाएगा तो स्वपक्ष-साधन और परपक्ष-दूषण कैसे होगा; क्योंकि सर्वथा अभाव पक्ष में न तो वस्तु का बोध होगा और न वाक्य-प्रयोग। अतः वस्तु भावाभावात्मक, नित्यानित्यात्मक, सदसदात्मक, एकानेकात्मक तथा उत्पाद-व्ययध्रौव्यात्मक है। किसी भी वस्तु का समूल विनाश नहीं होता; क्योंकि चेतन-अचेतन सभी सदा परिणामी नित्य हैं। अतीत पर्याय का व्यय, वर्तमान पर्याय का उत्पाद

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