Book Title: Sramana 2007 01 Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 9
________________ २ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक १/जनवरी-मार्च २००७ ऐतिहासिक दृष्टि से यहूदी धर्म का इतिहास सर्वाधिक प्राचीन है। इसकी तुलना में, जैनधर्म को भगवान पार्श्वनाथ (~८७७ ई०पू०) तथा सनातन धर्म को वेदपूर्वकालीन (-१५००-२०० ई०पू०) माना जाता है। यद्यपि सभी धर्म मुख्यत: व्यक्ति-विकास एवं जनकल्याण के रूप में समान हैं, पर जहाँ प्राचीन भारतीय धर्मों के नाम व्यक्ति-विहीन तथा गुण-प्रधान हैं, वहीं उत्तरवर्ती धर्मों के नाम ईश्वर-दुत, ईश्वर-पुत्र, ईश्वर-प्रकाश आदि के रूपक के रूप में व्यक्ति-प्रधान हैं। विभिन्न धर्मों के अनुयायियों की संख्या देखकर यह आश्चर्य होता है कि ऐतिहासिकता की दृष्टि से पूर्ववर्ती धर्मों की तुलना में जैनों की संख्या अत्यन्त अल्प है और भारत में तो यह कई शताब्दियों से ०.४% (और समग्र विश्व में ०.०४%) पर स्थिर है, जबकि ईसाइयों की संख्या विश्व की जनसंख्या का ३३-३५% चल रहा है। लगभग ४००० व्यक्ति प्रतिदिन नये ईसाई बन रहे हैं, तथापि सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि शिक्षित पश्चिम में इसके अनुयायियों की संख्या कम हो रही है और अविकसित देशों से बढ़ रही है, अर्थात् शिक्षितों में इसका आकर्षण कम होता जा रहा है। यदि जैनधर्म के वर्तमान स्वरूप को भगवान महावीर की देन माना जाय, तो इसका संप्रसारण काल ३० वर्ष (केवलज्ञान प्राप्ति के बाद) आता है, इसके विपर्यास में ईसाई धर्म के संस्थापक जीसस क्राइस्ट का संस्थापन और संप्रसारण काल प्राय: तीन-साढ़े तीन वर्ष बैठता है। फलत: यह विचारणीय है कि ईसाई धर्म इतने अल्प समय में इतना प्रभावशाली एवं संप्रसारित रूप कैसे ले सका और जैनधर्म के तीस वर्ष का प्रारम्भिक महावीरकालीन संप्रसारण क्यों इतना प्रभावशाली, आज तक भी नहीं बन सका। इस हेतु हमें दोनों महापुरुषों के जीवन, उपदेश एवं कार्यपद्धति पर तुलनात्मक दृष्टि से विमर्श करना होगा। महावीर और ईसा का जीवन चरित महावीर का जीवनकाल (५९९-५२७ BCE) ७२ वर्ष माना जाता है, जबकि ईसा का जीवन काल ~४BCE - ३०CE माना जाता है। इस प्रकार इन दोनों महापुरुषों के जीवनकाल में प्राय: न केवल ६०० वर्षों का अन्तर है अपितु, इनका कार्यक्षेत्र भी भिन्न है। एक भारत में रहा, दूसरा अरब क्षेत्र (लगभग तीन हजार मील .-५००० किमी० दूर) रहा। दोनों ने ही अपने क्षेत्रों में रहकर उपदेश दिये और उनका विश्वव्यापी प्रभाव हुआ। दोनों ही क्षेत्रों में अपने-अपने समय में लगभग एक-सी स्थितियां थीं १. हिंसक बलिदानों तथा यज्ञों और क्रियाकांडों की बहुलता, २. मांसाहार की लोकप्रियता, ३. बहु-देववाद की मान्यतायें, ४. सत्य एवं भ्रामक चमत्कारPage Navigation
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