Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 46
________________ सिरि भूवलय सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर दिल्ली सुविशालजगवनोल्पवरु ॥१२६॥ अवरपादकेनमिसुवेनु ॥१२७॥ भवळिववरासिद्धर् छ वर्णयोळ कदक्षरवतुस्यापिसि । दवयववो येम्ब प्रव र । नवकेवललब्धिगोडेयरेन्देनुबरु । अवररहन्तर् इष्टात्म, ॥१२॥ इष्टवदेवरुधातिकर्मबगेल्दु । स्पष्टदेभववनीगिद स द्॥ वृष्टियोळ् भूवलय के धर्मव पेळ्द । स्पष्ट द प्रोंकार वेळदवरु ॥१२६॥ नियोळ मूरुवेळेलि अनन्तद । गरिणतदोळडगिसिदवरम् ॥ वन ज नाभिय सोंकनिन्ददेवरम् । जिनदेवरदरियुवुदु ॥१३॥ २ सयुतबाद भूवलय सिद्धान्तके । रसवन्तर्मुहूर्तदि तोर थ । होसेदेन्दुमूरुकालव नोन्देकालदि । होसदोन्दरोळपेळ दिहर ॥१३॥ ॥१३२॥ पोपकारोंदरोळुगिसिदरवत्नाल । कंकम दक्षर है ।। अंकवेअक्षर अक्षर अंकयेम् । बकियपळदवरवरु ॥१३३॥ मनमयनुपटळ दोळु बाळव नररिगे। घनकर्मधाळदवस र. व ॥ अनुभववनु पळद अरहन्तरडिमळ नेनेवल्लि ऐदंकसिद्धि ॥१३४॥ गा खशिखेगळु समानदोळिप देहब । सकलांकपरमनिगिरु मुम् ॥ सकलागमवु सर्वांगम् ओंदरिम् । प्रकट वादरहन्त देव । ॥१३५॥ चरव्यन्तर भवनामर कल्पद । सचरदेवतेगळवरु नो ॥ सचराचरवनेल्लवकेळिदवरागि। प्रचलभक्तिय प्रकटिसिदर ॥१३॥ सनेन्द्रियदासेयळिव भव्यात्मरु । वशगेय् सकलांक दुदया। वशवादुदेमगेन्दु नमिसुतपोबरू । असदृश भूवलपक्के ॥१३७॥ नविल्लद ज्ञान प्रौंददुहुट्टि। श्री निकेतनंगदुप रि ॥ प्रानतवागिह मुक्कोडे पूमळे । भानुमंडलद भूवलय ॥१३॥ शगोंड "अ" आदिमंगलप्रामृत। रसद अक्षरवदु मा नु॥ यशदारुसाविर देनररवत्तोंदु । रसदेरडनेय अन्तरदोळ् ॥१३॥ यशदैदेन्टेळेळ अन्तरद ॥१४०॥ दिशेयधिकारदोळ बपं ॥१४१॥ रसदकगणनेयक्षरद ॥१४२॥ यशदेकूड़िदरेबाहक ॥१४३॥ रसवेन्टमर्नाल्केरडु ओंबु ॥१४७॥ यशदसाविर हन्नेरउरेय ॥१४॥ दिशेयोळुबरुवचारित्र्य ॥१४६॥ यशवदन्तागे "या" इदरोळ् ॥१४७॥ रसदन्तराधिकारदोळु ४E1 रसदक्षरदलेक्कसिद्धि ॥२४॥ कुसुमगळन्नुकूड़िदरे ॥२५॥ विषहरदनुभवविरुव ॥१५॥ यशदककाव्यदसिद्धि ॥१५२॥ रिषियमानरवाक्य ॥१५३॥ रसदन्तरेन्टनालकेन्ट ऐळु ॥१५४॥ प्रो मदंकवेप्पत्तळ येम्भत्तं दु । अम्मलुमन्तर न दरलि ॥ उम्मिदेन्टनालकेन्टेळ बंदंक । सम्मतब "ग्रा" क्य भूवलय ॥१५॥ संपूर्ण प्रा दूसरे अध्याय में ६५६१ अक्षर है। अन्तर में ७८४८ = है। कुल मिलकर १४४०६ अक्षर होते है अथवा प्रथम-अध्याय १४३४६+ दूसरे या अध्याय १४४०६ -२०७५५ हुये। प्रथम अक्षर ऊपर से नीचे तक पढ़ते जायंतो प्राकृत भाषा सक्रमवर्ती आदिमसंहरणणजुदोसमचउ रस्संगचारु संठाणोम् दिन्ववरगन्धधारी पमाणठिदरोमणखरुवो ॥२॥ २७ वा अक्षर से लेकर यदि ऊपर से नीचे पढ़ते जायं तो संस्कृत भाषा सक्रमवर्ती अविरलशब्दघनौघप्रक्षालित सकल भूतल मल कलंका । मुनिभिरपासिततीर्था । सरस्वती हरतुनो हुरितान् ॥२॥

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