Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 172
________________ १४८ सिरि भूवल्लय सर्वार्थ सिद्धि संघ वैगलोर-दिल्ली उस देश में मागध देश के समान कई जगह उष्ण जल का झरना । अथवा निकलता था। उसके समीप कहीं कहीं पर रमकूप (पारा कुआं) भी निकलते प्र से लेकर ऊ पर्यन्त थे। उसके उपयोग को प्रागे करेंगे । २३१ से १२३४॥ १, ५२, ४४२+२३, ५८०-१, ७६, ०२२ सौराष्ट्र देश का पहले का नाम निकलिग था। भारत का त्रितलि इस अध्याय को उपयुक्त, कथनानुसार यदि अपर से नीचे तक पढ़ते नाम इसलिए पड़ा क्योंकि भारत के तीन ओर समुद्र है यह भूमि सफनड़ देश ! जाएं तो जो प्राकृत काव्य निकलकर पा जाता है उसका अर्थ इस प्रकार है:थी इस अध्याय के अन्तर्काव्य में १५६ हजार में १६८ अक्षर कम थे ॥२३॥ इस परम पावन भूवलय ग्रन्थ को हम त्रिकरण शुद्धि पूर्वक नमस्कार इस भूवलय के प्लुत नामक नववें अध्याय के श्रेणी काव्य में पाठ करते हैं । यह भूवलय अन्य भव्य जीवों के प्रज्ञानान्धकार को नाश करने के हजार सात सौ पड़तालिस (८७४८) अंकाक्षर है । इसका स्वाध्याय करतेवाले लिए दीपक के समान है। इस दीपक रूपी ज्योति का प्राश्रय लेकर चलनेवाले भव्य जीव श्री जिनेन्द्र देव के स्वरूप को प्राप्त करने की कामना करते हैं। भव्य जीवों के कल्याणार्थ हम त्रिलोक सार रूप भूवलय ग्रन्थ को कहते हैं। उस कामना को पूर्ण करने वाला ६ अंक है । अर्थात् श्रेणी काव्य के ८७४८ । इस अध्याय का स्वाध्याय यदि मध्य भाग से किया जाय तो संस्कृत अंक प्राडा जोड़ देने से पा जाता है। यह वां अंक श्री जिनेन्द्र देव के भाषा इस प्रकार निकलकर या जाती है:द्वारा प्रतिपादित भूवलय की गणित पद्धति है । और यही अष्टम महाप्रातिहार्य भूतलि, गुराधर, आर्य मंक्ष, नागहस्ती, यतिवृषम, वोरसेनाभ्याम् वैभव भी है ।२३६। विसकतम् श्री धोतारः सावधा। इन प्राचार्यों द्वारा विरचित अन्य को प्राप इति नवमोऽध्यायः लोग सावधान पूर्वक श्रवण करें। ऊ ८७४८+अन्तर १४८३२-२३५८०

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