Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 223
________________ सिरि मृगनय सर्यि सिद्धि संच बैंगलोल विम्ली प्रतीत होती थी। इतने वेग से गमन करने पर भी वे जरा भी थकित न होकर १ ला आहार, वस्त्र तथा वसतिका मादि के याचक और दूसरा मान श्रावकों को मार्ग में चलते २ उपदेशामृत भी पिलाते जाते थे।५५॥ पिपासु । ज्ञान पिपासु भिक्षु समस्त तत्त्वों की कामना करते हुये गुरु के उपदेश से इन माधु परमेष्ठियों के असहश करुणा होती है। इनका दयाभाव । अथवा अपने शुभ ब शुद्ध ध्यान से अभीष्ट पद प्राप्त कर लेते हैं। मानवों तक ही सीमित नहीं बल्कि ममस्त जीव मात्र से रहता है। ये पूर्यो- इन तस्वान्वेषी साधुओं के मात्मिक ज्ञान का प्रकाश सूर्य के समान पाजित तप के प्रभाव से दया घन बन गये। धन का अर्थ समस्त आत्म प्रदेशों । अत्यन्त प्रतिभा शालो होता है। और जब ये महात्मा ध्यान में मग्न हो जाते में दया भाव अखंड रूप से व्याप्त हो जाना है। जिस प्रकार गाय फसल को।हैं तब इनकी आत्मा के अन्दर ज्ञान की किरणें घवल रूप से झलकने लगती समूल नष्ट न करके केवल छाल को खाकर सन्तुष्ट हो जाती है तथा उसके हैं।५६। बदले में अत्यन्त मधुर, पौष्टिक एवं समस्त जन कल्याणकारी पय प्रदान करती। ये साय शिष्यों की रक्षा करते समय किसी प्रकार का रंचमात्र भो रोष है उसी प्रकार नवधा भक्ति पूर्वक धावकों के द्वारा दिये गये नीरस माहार नहीं करते । इनका स्वरूप सदा तेज पुज से पूरित रहा करता है। जिस प्रकार को साधु जन ग्रहण करके सन्तुष्ट हो जाते हैं तथा उसके बदले उन्हें ज्ञानामृत । सागर समस्त पृथ्वी को चारों ओर से घेरकर रक्षा करता रहता है उसी प्रकार प्राप्त हो जाता है जो कि स्व-पर कल्याणकारी होता है ।५६। ये साधु परमेष्ठी समस्त शिष्य वर्गों को अपने ज्ञान रूपी दुर्ग के द्वारा सुरक्षित इस संसार में प्राय: सभी लोग एकान्त में भोजन ग्रहण करते हैं किन्तु रखकर आत्मोन्नति के मार्ग को प्रतीक्षा करते रहते हैं। और ऐसा करते हुये साधुषों के लिये अपने मात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई एकान्त स्थान कहीं भी भी अनादि कालीन अपनी आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मों के साथ सामना करके नहीं है। अत: वे गोचरी वृति से सर्व समक्ष प्राहार ग्रहण करते हैं। इस विजय प्राप्त करते रहते हैं।६०॥ प्रकार का ग्रहण किया हुमा माहार निरीह वृत्ति कहलाता है। इन साधुजनों पांचो परमेष्ठियों में ये साधु परमेष्ठी पांचवें हैं। प्राचार्य कुमुदेन्दु ने को प्राभ्वन्तरिक ज्ञानामृत आहार परम प्रिय होने के कारण पोद्गलिक जडान वषभ सेनादि ८४ के बाद गौतम गणधर तक और उनके समय से अपने समय माहार ग्रहण करते समय यह पता ही नहीं चलता कि "हम पाहार ग्रहण तक सभी प्राचार्यों ने भूवलय के अंग ज्ञान की पद्धति किन २ प्राचार्यों में थी कर रहे हैं।" क्योंकि इनका लक्ष्य केवल प्रात्मा की ओर ही प्रतिक्षण रहा 1 इत्यादि का निरूपण करते हुये दूसरा नाम केदारीसेन तोसरा नाम चारसेन करता है। ध्यानाध्ययन में किसी प्रकार की कोई वाघा न हो, इस कारण आदि क्रम से बज्रचामर, वनसेन, बज्जचामर, वां ग्रदत्तसेन, जलसेन, ये मुनिराज प्रमाण से कम अर्थात् अर्द्ध पेट अवमौदर्य वृत्ति से आहार ग्रहण 1 दत्तसेन, विदर्भ सेन नागसेन, कुन्थुसेन धर्मसेन, मन्दर सेन, जै सेन सद्धर्म सेन, करके तपोवन को गमन कर जाते हैं ।५७1 चक्रबंध, स्वयंभू सेन, कुभसेन, विशाल सेन, मल्लि सेन, सोमसेन, वरवत्त .. ये साघु जन कुनय (दुर्नय) का छेदन-भेदन (नाश) करके अनेकान्तवाद । मुनीन्द्र, स्वयं प्रभारती, इन्द्रभूति, विप्रवर, गुरुवंश, सेनवंश इत्यादि १५६१ धर्म का प्रचार करते हुये किसी का माधय न लेकर पवन के समान स्वच्छन्द मुनीश्वर सेनगण में भूवलय के ज्ञाता साघु-परमेष्ठी थे। ६१ से लेकर ८८ होकर अकेले विहार करते रहते हैं। अनेकान्त धर्म का अर्थ अखिल विश्व । तक श्लोक पूर्ण हया। कल्याणकारी धर्म है। एसा सदुपदेश देने वाले इन साधु परमेष्ठियों को पांचवां विवेचन:-यह आचार्य परम्परा मूलसंघ के प्राचार्यों की होती हुई इतिपरमेष्ठी कहते हैं।५। हास से पूर्व काल से लेकर आई हुई मालूम पड़तो है। इस सम्बन्ध में हम ये साधु परमेष्ठी मानव रूपी भिक्षु हैं । भिक्षु शब्द के दो भेद हैं:- अन्वेषण करते हुये महान् महान् इतिहासज्ञों से वार्तालाप किये । तो उस वार्ता

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