Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 247
________________ २२३ सिरि भूषजय सबचि सिद्धि संघ बेपतोर-दिल्ली सुव्रती यह वैद्यक विषयक इलोक पन्य किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता, , जीवों के रोग निवारणार्थ वैद्यक शास्त्रों की रचना कैसे हो सकतो है ? केवल भूवलय ग्रन्थ में ही मिलता है। जिन मुनियों ने जो ग्रन्थ रचना की है वह अंग परम्परा का अनुसरण यदि शारदा देवी साक्षात् प्रकट होकर अपने वरद हस्तों से स्वयं जिला करती हुई की है। अतः वैद्यक शास्त्रों का निर्माण करते हुए प्राचार्यों ने जिन का संस्कार करें तो उपयुक्त अंको का प्रामाणिक शास्त्र सिद्ध हो सकता है। प्रोषधियों के उपयोग को सूचना की है उसमें अहिंसा धर्म की प्रमुखता रखते करपात्र में पर्यात् मुनि प्रादि सत्पात्रों को बाहार पौष वादिक दान देनेवाले हुए वस्तुतत्व का निरूपण मात्र किया है। अतः उसमें कोई बाधा उपस्थित उत्तम दाताओं को यह प्रारणावाय पूर्व शास्त्र मालूम हो जाता है। इस काल नहीं होती। तक अर्थात् श्री कुमुदेन्दु प्राचार्य तक जिसने ज्ञान प्राप्त कर लिया है उनके । यह यदि इस वैद्यक शास्त्र का निषेध किया होता तो १४ पूर्व में प्राणानाम निर्दिष्ट करेंगे। वाय पूर्व को मंगवान जिनेन्द्र देव निरूपण ही नहीं करते। इस ग्रन्थ को किसी दानो बयांस ब्रह्मदत मनुष्य ने तो लिखा नहीं। यह साक्षात जिनेन्द्र देव की वाणी से ही प्रकट .सुन्दर सेन हुमा है। अतः इसका स्वरूप जैसा है वैसा लिखने में किसी प्रकार की बाधा नक्षत्राया पद्मसेन नहीं है। भगवान जिनेन्द्र देव अपनी कल्पना से कुछ नहीं करते, किन्तु वस्तु का सोमसेन जैसा स्वरूप है वैसा ही उन्होंने निरूपण किया । अतः इसमें किसी प्रकार की महेन्द्र सोमसेन । कोई बाधा नहीं पाती आयुर्वेदिक में मनुष्यायुर्वेद, राक्षसायुवेद, पुष्यमित्र पुनर्वसु तथा समस्त जीवायुर्वेद गभित है। राक्षसायुर्वेद में मद्य, मांस आदि अभक्ष्य सौन्दर जयदत्त पदार्य मिश्रित हैं। जिनका सेवन करने वाले राक्षसों को सिद्ध शुद्ध पारा, विशाखदत धन्यसेन स्वर्ण तथा लोहादिक भस्मों से तैयारकी गई सिद्धौषधियां लागू नहीं होती। सुमित्र धर्ममित्र क्योंकि प्रशुद्ध परमाणुयों से रचित राक्षसों के अशुद्ध शरीर के लिए अशुद्ध महाजितनन्दि . वृषभवर्द्धनदत्त औषधिया लाभदायक होती हैं। मांस, मदिरा, मनु, मल मूत्रादि के द्वारा तैयार दरसेन (धन्य सेन) सुकूल रस की गई औषधियां अशुद्ध होती हैं। और ये अशुद्ध औषधियां अनादिकाल से बन्यसेन वर्द्धनदत्त . यथावत् रूप से प्रचलन में आने के कारण अपने यथार्थ नामानुसार हैं। उनकी इन सभी राजाओं ने पाहार मादि ४ प्रकार के दान को सत्पात्रों को प्रयोग में लेना या न लेना बुद्धिमानों का कार्य है। देकर अतिशय पुण्म बंध करके तुष्टि, पुष्टि, श्रद्धा, भक्ति, अलुब्धता, शान्ति ! धर्म मार्ग में प्रवर्तन वृत्ति करनेवाले जोवों को हिंसादि पांचों पापों तथा अक्रोध इन सात गुणों से युक्त उतम दातूपद प्राप्त किया था १३६-५५॥ को त्याग देना चाहिए। अतः उनके लिए यह प्रशुद्ध पोषियाँ उपयुक्त नहीं इसी भूवलय के चौथे खंड प्राणावाय पूर्व में १५००० फूलों से समस्त । होती। उनके लिए विशुद्ध रसायन मूक्ष्माति सूक्ष्म प्रमाश अर्थात् सुई के अन आयुर्वेदिक शास्त्रों की रचना इसलिए की गई कि वृक्षों की जड़, पत्ते, छिलका ! भाग प्रमाण मात्र भी सिद्धौषधियाँ कुष्ठ, क्षयादि असाध्य रोगों को समूल नष्ट तथा फलों के तोड़ने से एकेन्द्रिय जोवों का घात होता है। किन्तु महाबती 1 करके अमोघ फल देती है तथा वृद्ध मनुष्यों की काया पलट कर तरुण बनाने सुनिराज एकेन्द्रिय जोवों का भो वध नहीं करते । ऐसी अवस्था में व्याधिग्रस्त ! में पूर्ण सफल होती हैं इसका विस्तृत विवेचन प्रारणावाय पूर्वक नाम चतुर्थ

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