Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 222
________________ १६ सिरि मूक्लय सर्वार्थसिद्धि संघ, बंगलोर-दिल्ली त्रु परमेष्ठी अतिशय गुरगों के राजराजेश्वर हैं ।३६१ ___ इन याचार्यों के साथ वार्तालाप करते समय इनके पास बैठे हए अन्य विस प्रकार पट्खण्ड पृथ्वी को जीत लेने पर चक्रवर्ती पद चक्री को। कविगण भो वीतराग से प्रभावित हो जाते थे और उस प्रभाव को देखकर ये प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार जीव स्थानादि षट्खण्ड अपने मस्तिष्क में सारण प्राचार्य इसे विशेष रूप मे गौरव प्रदान करते थे।४५॥ करने के कारण और तपीराज्य में परमोत्कृष्ट होने से चक्रवर्ती कहलाते। इन महात्मानों ने ब्रह्मक्षवियादि चारों वर्गों के हितार्थ अपनी अनुपम हैं।३७ क्रियापों से संस्कार किया था ।४६। इन साधु परमेष्ठियों में नवमांक पा से सिद्ध की हई द्वादशांग वाणी। ये मुनिराज एक ही समय में उपदेश भी देते थे और शास्त्र लेखन अर्थात् भूवलय का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।३८॥ कार्य भी करते थे।४७।। ये साधु परमेष्ठी समस्त गुरुकुल के अजानाम्धकार को नाश करने वाले यव मात्र भी कर्म का वंध ये नहीं करते थे।४। चन्द्रमा के समान हैं ।३।। ये साधु समस्त विश्व को शान्ति प्रदान करने वाले थे। अर्थात् समस्त इस गुल्लुस में जो कविगण रहते है उनका उद्धार करने वाले साधा भूमंडल को सुख-शान्ति देने वाले थे।४।। परमेष्ठी है ।४।। इन मुनिराजों के प्रादि पुरुष श्री वृषभदेव तीर्थकर के प्रथम गलघर इन मुस्कुलों में सिंहासन पर विराजमान होकर राजाधिराजों से सेव्य । श्री वृषभसेनाचार्य थे ।५०। मलेक मुष विद्यमान थे। वह इन्द्रप्रस्य से लेकर महाराष्ट्र तामिल और वृषभसेनाचार्य से लेकर चौराशी गणधर इन सा परमेष्ठियों के कर्णाटक देश में प्रख्यात अनेक गुरुपीठों को स्थापित किया था । इस गुरुकूल के प्रादि पुरुष थे ।५१॥ मुनि संघ में समस्त भव्य जीव समावेश होकर अपने जीवन को फलीभूत बनाने । चतुः संघ में ऋषि, आर्यिका, श्रावक और थाविका ये चार प्रकार के के लिए यात्म-साधन का ज्ञान प्राप्त कर लेते थे। भेद होते हैं। उन वृषभसेनाचार्य के समय में सौन्दरी देवी और ब्राह्मी देवी के इसलिए इन्हें देश-देशों से पाये हुए श्रीमान् नथा धीमान सभी व्यक्तियों दोनों पार्यिकायें यों। इन्हीं दोनों त्यागी देवियों का सर्व प्रथम स्थान स्वामी मे मयाह कल वृक्ष अर्थात् अन्न दान देनेवाले कल्प वृक्ष से नामाभिधान । महिलाओं में था ।५२स किया था।४१॥ इन दोनों प्रादि देवियों ने सर्व प्रथम श्री भूवलय का पाख्यान प्रादि देहली रावधानी को पहले इन्द्र प्रस्थ कहते थे। आकाश गमन ऋद्धि से तीर्थकर श्री ग्रादि प्रभू ले भरत चक्रवर्ती तथा गोम्मट देव के साथ सुना का। पाकर इस सेन गरण वाले मुनियों द्वारा जैन धर्म को प्रभाबना होतो यो ।४। यद्यपि यह बात हम ऊपर कह चुके हैं, तथापि प्रसंगवश यहां हमने इंगित कर प्राचीन कालीन चक्रवत्तियों का रामिहामन नवरत्नों से निर्मित था। दिया ।५३, और उन चक्रवतियों ने इन परम पूज्य मुनीश्वरों को प्रवाल मरिण का सिंहासन! इन्हीं ब्राझी पौर सुन्दरो देवी से लेकर प्राचार्य श्री कुमुदेन्दु पर्यन्त बनवा कर प्रदान किया था और वे सदा जम सिंहासन को नमस्कार किया FREERE गणनीय प्रायिकायें बों ।५४। करते थे।४३॥ यह सब चतुःसंघ सरल रेखा अर्थात् महावत के मार्ग से हो विचरण इन मुनिराजों की ख्याति सुनकर ग्रीक देशीय जनता पाकर इनके | करता हा संयम पूर्वक नियत विहार करता था। इनके साथ चलने वाले धर्मोपदेश का श्रवण, पूजन प्रादि करते थे अतः ये यवनी भाषा में वार्तालाप बहुत बड़े-बड़े मालिशाली व्यक्ति भी पीछे पड़ जाते थे। उन साधुओं को गति करते हुए अनेक यावनो अन्यों की रचना भी करते थे। 1 इतने वेग से होती थी कि मृग और हरिण को चाल भी इनके सामने फीको

Loading...

Page Navigation
1 ... 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258