Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 211
________________ सिरि भूषलव सवार्थ सिबि संघ गलौर-वित्ती मुधिनिस्याद्वा.........॥ जब मन की चंचलता रुक जाती है तब आत्म ज्योति का ज्ञान विकइसो रीति से २७वें श्लोक से लेने पर भी यह श्लोक पूर्ण हो जाता है। सित होने लगता है। और उस विकसित ज्ञान ज्योति को पुनः २ प्रात्मंचक दनांघनदन्ति । घुमाने से काय गुप्ति, वचन गुप्ति तथा मनः गुप्ति की प्राप्ति होती है। तब मुधिय पेलबुदिन्तहहा ॥ आत्मा के अन्दर संकोच-विस्तार करने की शक्ति बन्द हो जाती है । ससे गुप्त छोड़े हुए "ई" यह प्रक्षर प्राकृत भाषा और "स" अक्षर-भाषा को। कहते हैं । उस अवस्था को शब्द द्वारा बतलाने के लिए श्री कुमुवेन्दु प्राचार्य जाएगा। इस गिनती से चार काव्य बन गये । ने चक्रवाक पक्षी का लांश्चन लिया है। यह उपयुक्त उदाहरण ठीक ही है, रिद्धि सिद्धि में रहनेवाला प्राद्यक्षर "रि" के अतिरिक्त यदि पढ़े तो। क्योंकि भूवलय चक्रबन्ध से ही बन्धा हुआ है ।४१ रिसहादीणं चिराहम" इत्यादि रूप एक अलग भाषा का काव्य निकल इस भूवलय ग्रन्थ की, महान अंक राशि से परिपूर्ण होने पर भी यदि आता है जो ऊपर लिखा जा चुका है। यह श्लोक मूल भूवलय से नहीं पढ़ा । सभी संख्यामों को चक्र में मिला दिया जाय सो, केवल नौ (९) के अन्दर ही जा सकता, किन्तु यदि वहां से निकालकर पड़ा जाय तो पढ़ सकते हैं, यह । गणना कर सकते हैं । इसी रीति से प्रत्येक जोब अनन्त ज्ञान से संयुक्त होने चमत्कारिक बात है अर्थात् अद्भुत लीलामयी भगवद्वारणी हैं। पर के अन्दर ही गभित हो जाता है । वह ९ का अंक एक स्थान में ही अब ऋद्धि सिद्धिगे श्लोक से लेकर ४८ श्लोक पर्यन्त अर्थ लिखेंगे- रहनेवाला है। इसी प्रकार अनन्त गुण भी एक ही जीव में समाविष्ट हो सकते भूवलय में बुद्धिरिद्धि, बलरिद्धि, औषधिरिद्धि इत्यादि अनेक ऋद्धियों। हैं। जिस तरह सूर्योदय होने पर प्रसार किया हुआ कमल अपनी सुगन्धि को का कथन है। उन सब ऋद्धि की प्राप्ति के लिए अर्थात् सिद्धि के लिए भी फैलाता है पर रात्रि में सभी को समेट कर अपने अंदर गभित कर लेता है, आदिनाथ भगवान और श्री अजितनाथ भगवान को आदि में नमस्कार करना| उसी प्रकार प्राप्त को हुई आत्म ज्योति को अपने अंतर्गत करके और भी चाहिए, उनके वाहन वैल और हाथो से स्यावाद का चिन्ह अंकित होता है। अधिक शक्ति बढ़ाकर बाहर फैलाने का जो आध्यात्मिक तेज वृद्धिंगत हो जाता ऐसा ग्रन्थकार ने कहा है ।। है उसे शब्द और चिढूप से बतलाने के लिए पाचार्य धीमे जल कमल और अपना अभीष्ट स्वार्य सांधन करना है अर्थात् सूबलय के ६४ अक्षरों अंक का चिन्ह लिया है ।। का ज्ञान प्राप्त करता है । इन ६४ अक्षरों का यदि साधन करना हो तो सर्व रत्न, स्वर्ण, चाँदी, पारा और गन्ध इत्यादि कर लोह तथा पाषाण प्रथम मंगलाचरण होना अनिवार्य है । मंगलाचरण में लौकिक और अलौकिक को क्षण मात्र में भस्म करने की विधि इस भूवलय में-पुष्पायुर्वेद रूपी चौथे दो भेद है । लौकिक मंगल में श्वेतछत्र, बालकन्या, दवेत अश्व, श्वेत सषर्प, खंड में बतलामी गई है। वहां इसी जलकमल और नवमांक गणित को उपयोगी पूर्ण कुम्भ इत्यादि दोष रहित वस्तुएं हैं । अब सर्वमंगल के आदि में श्वेत अश्व बतलाया गया है । को खड़ा करना अभीष्ट है ।। गुप्तित्रय में रहनेवाली आत्मा का चित्त में सम्पूर्ण अक्षरात्मक ६४ मनुष्य का मन चंचल मर्कट के समान एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष, शाला ! ध्वनि को एकमात्र में समावेश करने को विज्ञानमयी विद्या की सिद्धि को देने से शाखा तथा बाली से डालो पर निरन्तर दौड़ता रहता है। उसको बाँधकर वाले श्रो सुपाश्वमाय तीर्षकर है। उनका वाहन स्वस्तिक है। इस महान रखना तथा मकंट को बांधना दोनों समान हैं । चंचल मन स्वावादस्पी बागे। विद्या को शब्द रूप से दिखलाने के लिए प्राचार्य ने स्वस्तिक का चिन्ह उपयुक से ही बांधा जा सकता है। उसके चिन्ह को दिखाने के लिए प्राचार्य ने मर्कट बताया है।७।। का उदाहरण दिया है ।। ___का अंक महंत सिद्धादि र पद से अंकित है । वह पति के होने पर

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