Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 212
________________ चिरि भूक्षय सर्वार्थ सिटि संघ बंगलौर-दिल्ली भी केवल ९ ही रहता है । जैसे ६x२=१८ तथा ६४३-२७ होने पर भी खालेने के अनन्तर गाय के खाने के लिए भाग न रहकर केवल गधे के खाने इन दो संख्यामों को पृथक पृथक (+१-१२+७=) जोड़ने पर केवल ! के योग्य ही रहता है उसी प्रकार अणुबती के आहार ग्रहण करलेने के पश्चात् ए ही होगा। इसका उदाहरण ऊपर भी दिया जा चुका है। संख्या में से शेषान्न मुनिजनों के उपयुक्त न रहकर केवल प्रवतियों के लिए ही रहता है। पहले का १ निकालकर यदि दो को १ मानकर गिनती करें तो पाठवीं संख्या जिस प्रकार गघा फसल को उखाड़कर समूल खा जाता है और उसके बन जाती है इसीलिए कुमुदेन्दु प्राचार्य ने गणना करने के समय में आठवें । खाने के बाद किसी भी जानवर के खाने लायक नहीं रह जाता उसी प्रकार चन्द्रप्रभ भगवान को प्रादि में लिया है। चन्द्रमा शीतल प्रकाश को प्रकाशित अवती के भोजन कर लेने के पश्चात् शेषान्न किसी त्यागी के योग्य नहीं रह करता है और वह शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से बढ़ता जाता है । इसी प्रकार योगी । जाता । इन तीन लक्षणों को क्रमशः गोचरी, अश्वचरी तथा गधाचरी की शान-किरण भी ८ और ६ इन दोनों अंकों से अर्थात् सम-विषाक से । कहते हैं प्रवाहित होती रहती है । इस शीतल ज्ञान-गंगा प्रवाह को शब्द रूप में दिखाने मुनिजन आहार ग्रहण करते समय अपना लक्ष्य दो प्रकार से रखते के लिए श्री प्राचार्य जी ने चन्द्रमा का चिन्ह उदाहरण रूप में लिया है। 1 । एक तो शरीर के लिए चावल-रोटी प्रादि जड़ान्न ग्रहण करना और दूसरा - इस जान-गंगा के प्रवाह में डूबकर यदि पाध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त । स्वारमा के लिए ज्ञानान्न । करना हो तो स्वाद्वाद का अवलम्बन लेना चाहिए । स्याद्वाद रूपी शास्त्र द्विधार यद्यपि उपयुक्त दो प्रकार के आहारों को मुनिजन ग्रहण करते हैं से युक्त है। अर्थात् उस तलवार को १ फल के ऊपर यदि प्रहार करें तो वह । तथापि शरीर के लिए जड़ान को अपेक्षा नहीं रखते। क्योंकि मुनिजनों की स्वपक्ष और परपक्ष दोनों को काटता है । इस तथ्य को शब्द रूप में बतलाने भावना सदा इस प्रकार बनी रहती है कि जब वमन किया हुआ भोजन कुला के लिए प्राचार्य ने करी मकरी का उदाहरण लिया है । कहा भी है कि:- भी नहीं खाता तब कल के त्याग किए गए पाहार को हम रुचि के साथ कैसे ___“करी कथंचिन्मकरी कथंचित्प्रख्यापयज्जैन कथंचिदुक्तिम्" इसका ग्रहण करें ? अत: वे आहार ग्रहण करने पर भी अरचि के साथ करते हैं । इसे मर्थ ऊपर या चुका है 18 1 गोचरी और श्रीचरी दोनों वृत्ति कहते हैं। स्वर्ग लोकस्थ कल्पवृक्ष से पाकर भूवला शास्त्र का १० वां अंक १ इस विषय को बतलाने के लिए प्राचार्य ने गएडमेरुण्ड पक्षी का चिन्ह बनकर मणि रल माला प्रांहार आदि ईप्सित पदार्थों को प्रदान करता है। लिया है ।११॥ इस बात को शब्द रूप देने के लिए प्राचार्य ने १० कल्प वृक्षों का चिन्ह रूप यह मन द्रव्य मन और भाव-मन दो प्रकार का है 1-एक प्रकार का में लिया है । अर्थान् वृक्ष का चिन्ह १०वें तीर्थकर का है ।१०। मन लगातार विषय से विषयान्तर तक चंचल मर्कट के समान दौड़ लगाता दिगम्बर जैन मुनि गोचरी वृत्ति से आहार ग्रहण करते हैं। याहार रहता है और दूसरा सुसुप्त होकर काहिल भंसे के समान स्थिर होकर पड़ा लेने के गोचरी, अश्वचरी, गर्घपचरी (गधाचरी) ऐसे तीन भेद हैं । जिस प्रकार रहता है । इस विषय को बतलाने के लिए प्राचार्य श्री ने भैसे का चिन्ह लिया गाय फसल को नष्ट न करके केवल किनारे से खाकर अपनी क्षुधा शान्न करने है। इन दोनों क्रियाओं से, अर्थात विपय से विषयान्तर तक जाना या सुप्त के बाद भी अन्य जीव जन्तुओं के खाने के लिए रख छोड़ती है उसी प्रकार रह जाना, पात्मा का कल्याण नहीं हो सकता क्योंकि ये दोनों प्रात्मा के लक्षण ३६ ओर २८ मूल गुरगधारी महावतो प्राचार्य तथा मुनिजन गोचरी वृत्ति से नहीं हैं। प्रात्मा का लक्षण सदा ज्ञानदर्शन में लीन रहना हो है ।१२।। पल्प माहार ग्रहण करके पाहार देनेवालों के लिए भी रख छोड़ते हैं। जिनेन्द्रदेव जब स्वर्ग से च्युत होकर मातृगर्भ में अवतरित होते हैं. ::: जिस तरह प्रश्व फसल के अर्घभाग को खा लेता है, किन्तु उसके ! तब हाथी के आकार से मातमुख द्वारा प्रवेश करके मार्ग में तिष्ठते हैं।'

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