Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 203
________________ बारहवां अध्याय बारहवां प्रदार तीसरा '' है, इस अध्याय का नाम 'ऋ' अध्याय है। विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, उत्सर्ग और ध्यान ये छह प्रकार के अंतरंग तप है इसमें पच्चीसवें श्लोक तक विशेष विवेचन करेंगे। २६ वें श्लोक से अन्तर । इन दोनों को मिलाकर बारह तप होते हैं । इन तरों की सामर्थ्य से प्राप्त हुमा काव्य निकल कर पाता है, उस काव्य को अलग निकाल कर लिख लिया जाय । यह यश-सिद्ध भूवलय काव्य है ।। तो भी उसमें पुनः दूसरा काव्य देखने में आता है। इस गद्य में सबसे पहले वह इस अढाई द्वीप में तीन कम नौ करोड़ दूरवीर दिगम्बर महा मुनियों दिया जाता है । इस गद्य में इस तरह का विषय है कि गुजरात प्रान्त में श्री के अन्तरंग को ध्यानाग्नि के द्वारा उत्पन्न यह सारात्म नामक भूवलय अन्य है। नेमिनाथ तीर्थकर और कृष्ण जी एक जगह रहते थे। गुजरात प्रान्त में एक! इन तीन कम । करोड़ मुनियों की संख्या इस ग्रन्थ में [सत्तादी अहंता छाम्मर समय नेमिनाथ और कृष्ण दोनों गुजराती में बातचीत करते थे। उस समय ! मज्जा अर्थात् प्रारम्भ में सात, अंत में पाठ और बीच में 2 बार मौ हो, गुबराती घोर संस्कृत प्राकृत दोनों मिश्र भाषा मोवूद थी, ऐसा मालूम पड़ता। अर्थात् आठ करोड १६६६६६९७ इस प्रकार बताई गई है। है। उसमें से कुछ विषय यहां नीचे उद्धृत किया जाता है - उत्तम संहनम वालों को जो व्यवहार धर्म को परिपाटी है बह ग्यवहार १रिषहादिपम् चिण्हम्, गोवदि, गय, तुरग, बागरा कोकम्, पउपयम्, नय है पोर तदभव मोक्षगामी के चरम-शरीरी व्यक्तियों ने जो अपनी रचसनदवतम् अवससी, मयर, सो सतीया। मय हड्डियों के बल से खत्रु का नाश करके प्राप्त की हुई जो शुद्धाम सिद्धि गन्म, महिस, बरहह,हो, साहो वज्जएहिरिण भग़लाय, तगर कुसुमाय, परमात्म अंग है उस अंग का नाम ही भूवलय है । कलसा, कुम्मुप्पल, सख पहिसिम्हा ॥ पून: इसमें यह बताया है कि यादि का संहनन व्यवहार नय तथा अर्थ-वृषभादि २४ चौबीस तीर्थंकरों के चिन्ह वृषभ हाथी, घोड़ा, ! निश्चय नय का साधन है। निश्चय साधन से साध्य किया हुआ मो मंगल काव्य बन्दर, कोकिल, पक्षी, पद्म, नंद्यावर्त, अर्द्धचन्द्र, मगर, सो द्वतीय (वृक्ष) भेट! पढ़ने में पाया है वह भूवनय ग्रन्थ है।४।। पक्षी, भैष, सुबर, हंस, बच्च, हरिण, मेढा, कमल पुष्प, कलश, । इस उत्तम नर जन्म के प्रादि और अन्त के जितने, शुभकर्म है मामी. मछली, शंख सर्प पीर सिंह। इन चिन्हों के विषय में जैन ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न । जब तक वह पुण्य कर्म मनुष्य के साथ रहने वाला है उतने में ही उनके परिपूर्ण मत मालुम पड़ते हैं । इसके विषय में आगे चलकर लिखेंगे और १३ वें अध्याय । सुख को एकत्र कर देने वाली तथा उस सुखके साथ साथ मोक्ष पद को प्रास्त्र से बहुत प्राचीन काल के दिगम्बर जैनचार्यों की परम्परा से पट्टावली के करा देने वाली ये अठारह वेरिगया है। उस श्रेणी के अनुसार प्रात्म खिद्धिको विषय में यहां एक गद्य अन्तर पद्यों से बहते हुए १४ वें अध्याय के १३० वें प्राप्त करा देने वाला यह भूवनय ग्रन्थ है। पद्य तक चला जाता है । कानड़ी में कर्णाटक पंप कवि के पहले चत्ताना अर्थात इन असरह अशियों को मान पर हे नोने तक और नीचे के मर चतुर्थ स्थान (यह भूदलय के काव्य के सांगत्य नाम का छन्द है) और बिजड़े तक पढ़ जाना पोर नीचे से उमर पाते प्रामे में अठारह श्रेणियों के स्थान अर्थात् दो स्थान नामक काव्य लोक-प्रसिद्ध थे। उस बेजड़ नामक काव्य को मिझते हैं। विस तरह भूवमय में प्रवरह श्रेणी पढ़ने में प्रत्यक्ष मासूम झेजा -.. यहां उद्धृत करते हैं। है इसी तरह भूवनब अन्य पढ़ने वालों का राजाधिराम, मंडलीक इत्यादि इस मध्याय में मुनियों के संयम का वर्सन किया गया है। ऋषियों के बर्ती और वीर्यकर की महाहवेशिमा मखर रूप से मिल जाती हैं १५० अध्यात्म योग साम्राज्य के वशीभूत जो अनशन अवमोदर्य, द्रतपरिसंच्यान, रस। इस मार्ग से चलने वाले भव्य जीवों को रक्षा करने वाला यह भूवलय परिमाग, विविध पस्यासन पोर कायक्लेश ये छह बहिरंग वप पोर प्रायश्विस 1 सिवान्त है।६।

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