Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 207
________________ १५२ सिरि भूषलय सर्वार्थ सिवि संघ मंगलौर-दिल्ली रोछ ने अपने शरीर में जिस प्रकार अपने शरीर में सम्पूर्ण बालों को। उसो प्रकार इस जीव को पाप को छोड़कर पुण्य को ग्रहण करना चाहिए।१४६॥ ग्रंय लिया है उसी प्रकार सम्पूर्ण द्रव्य सूत्र के अक्षरों को कालाणु ने अपने पह भूवलय रूपी ममस्त अक्षर द्रव्यगमन की राशि लोकाकाश के संपूर्ण में समावेश कर लिया है। इस बात को सूचित करने के लिए रीछ के लांछन । प्रदेश में व्याप्त है। जिस प्रकार वह व्याप्त हुआ है उसी प्रकार यह जीवात्मा (चिन्ह) को योगी जन ने शास्त्र में अंकित किया है। उस प्रकित चिन्ह की देवगणं को भी ज्ञान से जो-जो अक्षर जहाँ-जहा है वहां वहां ज्ञान के द्वारा पहुंच कर पूजा करते हैं ।११६॥ समझ लेना चाहिए। उसी प्रकार भूवलय चक्र के प्रत्येक प्रकोष्ठ में रहने जगत में बच्च अत्यन्त बलशाली है। इसमें पारा मिला कर भस्म किए वाले प्रत्येक का रहने वाले समस्त विषयों को सर्श करते हुए भस्म को शस्त्र के ऊपर लेप किया जाय तो वह शस्त्र सम्पूर्ण आयुषों । हुये भिन्न-भिन्न रस का पास्वादन कराता है ।१४५। की जीत लेता है। उसी प्रकार जेन धर्म हम सम्पूर्ण सूक्ष्म विचारों का शिक्षण बारागसी अर्थात् बनारस में वासुदेव ने नन्द्यावर्त गणित से उपरोक्त देते हुए भव्य जीवों की रक्षा करने वाला है। इस विषय को बताने के लिए शब्द राशि को समझ लिया था और अन्य दिव्य साधन को भी साध लिया वच लांछन अंकित किया है ।१२० था ११४८ नोट:-लोक नं० १२१ से श्लोक नं० १४३ तक अयं लिखा जा चुका । नोट--श्लोक नं० १४६ से १७१ तक को व्याख्या की जा चुकी है। है। मूखं से मूर्स अर्थात् अक्षर शून्य को भी जिसको "प सि र उ सा" का। नवमांक चक्र में समस्त मंगल प्राभत चौदह पूर्व बड़ा है। उपमा से उच्चारण करना नहीं आता है ऐसे मनुष्यों को भी तुष्माष इस मंत्र को देकर ३ देखा जाए तो विचित्र चौंसठ वर्ष रूपी कुभ में समस्त द्वादशांग रूपी अमृत भरा अति वेग से उनकी ज्ञान शक्ति बढ़ाने वाला एक मात्र जैन धर्म हो है। इसी है। संसारी जीवों का सम्पूर्ण दशा उस कुंभ के द्वारा जानी जा सकती है । इस प्रकार सम्पूर्ण जीवों को इसकी शक्ति के अनुसार उपदेश देकर उनके ज्ञान को प्रकार करने की शक्ति जिनमें नहीं है वे इस कुभ की पूजा करें।१७२।। बढ़ा देता है। कुभ भरे हुए समस्त अक्षर नव पदों के अन्तर्गत हैं। प्रहत सिद्ध प्रादि तुरुभाष, कहने का अभिप्राय यह है कि 'तुषा' ऊपर का छिलका है और नव पद ही रक्षक रूप भद्र कवच है। वह भद्र कवच कभी नाश नहीं होने 'माष' भीतर की उड़द की दाल है। छिलका अलग है और उसके भीतर की । ३ वाला है। इस बात को सूचित करने के लिये हो कछुए का लांछन [चिन्ह] दाल अलग है। उसी प्रकार शरीर अलग है और प्रात्मा अलग है। यह उप- विजनों की रचना के लिए महत्व पर्या वस्त है ।१७॥ देश अज्ञानियों के लिए एक महत्व पूर्ण उपदेश है ।१४४। संसारी जीवों के लिए अत्यन्त शील गति से पुण्य बन्ध होना अनिवार्य राज्य में पहले फैली हुए कीर्ति ही राज्य को भद्रता को सूचित करती है। इस हेतु को बतलाने के लिए हरिए' लांछन (चिन्ह) अंकित किया गया है। उसी तरह जब जीवों को व्रत प्राप्त होता है तो उस समय ११ प्रतिमा है। जंगल के रास्ते में पेड़ से गिरे हुए कच्चे पत्ते के रस के द्वारा अत्यन्त अर्थात् श्रावकों के ११ बजे अर्थात् धावक धर्म रूपी राज प्राप्त होता है । जब वेग से दौड़ने वाले चंचल पारे को बांध दिया जाता है। उसी तीन बेग से शरीर श्रावक श्रावक लोग अपने व्रत में भद्र रूप रहते हैं, वही मोक्ष महल में चढ़ने की प्रथम के रोग नाश के निमित्त को बतलाने के लिए प्रारोग्य को शीघानियाँध बढाने सोपान है। यहां से जीव का स्थानादि पटखंड आगम रूपी सिद्धान्त राज अर्थात के लिए यहाँ 'पादरस' का प्रयोग बतलाया गया है ।१४५॥ 1 महावत में समावेश हो जाता है ।१७४! सत्रहवें भंग के गणित में मेंढ़ा का दृष्टान्त दिया गया है। वह मेंढ़ा सभी कुमुदेन्दु आचार्य के शिष्य, समस्त मारतवर्ष के चक्रवर्ती ने इसे भूवलय प्रकार के पत्ते को खाकर केवल बकरी के न खाने वाली वस्तु को छोड़ देता है। के प्रतर्गत षटखंड मागम को लेकर करोड़ों की गिनती से गिनते हुए निकाला

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