Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti
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सिरि मुबलव
सरि सिद्धि संभ, देलौर-दिल्ली को हति'भवतेयम् कलिसु[२०] व राज्य'। सार'द षट्खण्डव'नु त ऐ॥ परम्दु'पोरेवाहन राज्य मुक्तिगे। बारि 'हन्नोन्वनेय'नेले ॥१७४॥ व ब 'राज्यवनाळ्ब चक्रियु पूजिसि' । सबि'दन्त'राज्य वाहन प्रनीधिव'लोत्पलकु[२१]ळ'कोटिलेक्कदोलिप्पानववु'अन्ताविकाव्यवसा१७५ हर वधे'मीटुब तन्तियनाद'दाटवु। मोदगि बन्द श्री शंख'। पद गर भवाहनवेम'गाटविशरुत' । सबब 'ध नितत सर'[२२] सति ॥१७६।।
प्रदरलि'तर्क व्याकरणर्' ॥१७७॥ र्द छन्दस्सु निघन्टु ॥१७॥ प्राद अलंकार काव्य धरर्' ॥१७॥ क्दसिन 'नाटकाष्टांग ॥१०॥ , प्रदरिणत गरिएत ज्योतिष्कर'॥१८शावगिद'सकल शास्त्रगळ॥१८२॥ अदर विद्यादि सम्पन्नर ॥१८३॥ वियन्ते 'महानुभावर'॥१४॥:. अदरलि'लोकत्रयापर्' ॥१५॥ द्धि'गारवद विरोधर'॥१८६॥ अदे सकल महीमण्डलार्यर् ॥१७॥ धिय'ताकिक चक्रवति॥१८॥ प्रदे'सद्विद्या चतुमुखरु' ॥१८॥ उद'षट्तर्क विनोदर' ॥१०॥ नव'नव्यामिकव वाडिपर' ॥१९१॥ प्रदरलि'वशेषिकवम् ॥१२॥
सदिय 'भाष्य प्रभाकररु' ॥१६३॥ प्रदे 'मीमाम्सक विद्याधर ॥१६४॥ कद् 'सामुद्रिकर भूवलयर'॥१६॥ कळ 'रुणेयोळय्बर मन्तरद' सरणिमिम् । अरुहन 'महिमेयिम्' रणा रणा ॥'धरणेन्द्र पद्मयरागि'ताव परितन्द'वराहावु'वाहनगळ'लि॥१९६५ प* रिपरि चिन्हेयु धरेगे विस्मयकर । वरिग[२३ नेम् अन्यसिस ह* पीठ। वरिद'नेरिद महवीर'जिननायक'हरिव'रवाहनब'जन' ॥१६॥ पेश 'रेल्ल राज्य चिन्हेगे वीररसबेन्दु'। हारि 'मनेय मेल्एर' दो सार इदहरित्व[२४] पश्नमगळे रडुनरिप्प'सार'तम्बरचक्र प॥१९॥ प्रा 'गळ नाल्फु'म 'सेरिसुत' पद्मगोम्भय' सागे । 'नूरास्तुनाल्' षा का ईगल'कने पद्मविष ठरपाद'विराग विजय[२५] उत्पल'।१६॥ ह* र'पुष पवाहन देव' श्री 'नमिजिन' । गुरुविनुत्पत्ति' यह ह सिरि'कालव चिन्हें सत्पथवनु तोरिगुरुवे 'नम्मस् पालिसेम्बे' ॥२०॥ उ* सरि चित्पथ मार्गकदिसला(२६) मनु' । विष'मथनथ्य' नअम प* दनुवृषभ तीर्थकर जिनमुद्रयो तप विश गय्दजिनवृक्षवदन'म्॥२०१॥
* रपटरण होळेव अशोकेय रूपेन्तुव । घनवटवृक्षबद्म' र लिगुरगदरिग[२७]म् श्री मनसिजमदनवनद'अजित जिनेश्वर'।२०२ टश बणेय तनुभारव तपकोडिजि । नव'नाद एळेले बाळे'य' बन या 'गिउडि 'एन्नुवशोकेयु'। नव'ताम् स्वच्छ [२८] गरभव ॥२०३।। यक शदन्तिम देहव शाल्मलि'वर' । वश 'वृक्षद डियोळु बई' न दु॥ वाट्ट परमात्म शम्भव जिनरिगा' यश'वृक्षवें' सुरवन्ध ॥२०४॥
: प्राशायुर्वेद विधिज्ञर् ॥२०॥ 'दशधर्म योगसार धरर् ॥२०६॥ रसवाद दतिशय भद्रर् ॥२०७॥ पास हदिनेन्टु दर्शनरु ॥२०॥ .. त्स स्थावरजीवहितवर॥२०६॥वश ब्रह्म विद्या ळषरगण॥२१०॥ अशा भूवलय दिग्भ्रर॥२१॥ तसजीवगरगनेय चतुर ॥२१२॥: :
रेसेवर स्वच्छाभिप्राय॥२१शायश राज्य चक्रवतिगळ ॥२१४॥मासे शब्दव विद्यागमरु ॥२१॥ प्सरिप कन्नाडिनोडेयर्॥२१६॥ छशतद सूत्रांगधररु ॥२१७॥ नसनसेयळिद सिद्धान्त।।२१।। पिसरणतेयळिव कन्नडिग ॥२१॥ कसबरनाडिनोळ्चलिप॥२२०॥
तसयिद्य यतिशय कुशल।।२२।। स्सदक गणनेय कुशल॥२२२॥पुष्पगच्छदलि भूबलयर्॥२२३॥ को टिय 'वृक्षवदण्ण' (२६) ने नरवन्ध'। साटियळिद अभिनन् तु* साटिये 'अभिनन्दन मत्तु सुमतियु। पेटेय 'सरल प्रियन्गु ॥२२४॥ मुक गरिणत वृक्षगळवु 'मरदडियोळु'। सोग 'तपगेय्द वृक् ना* गा। अगषगळे'घरणिगे सन्तोषाबगेहित कारि[३०]दर्शन वोळ्॥२२॥ इक बर् 'अगात्मनिरव कन्डिरदर' । सदिवर 'दर्शनोत्पत् शंझ सव तिय वृक्ष' हर्षद कुटकि शिरीष । नव गळे रडम् 'स्पर्शव शो ॥२२६।। एक केय नरह(३१)प्रात्म प्रकाशन पानव 'प्रभ जिन,रात्म' तिळियोसिब'सुपाय जिनेन्द्र'स्वात्मसिद्धिनागासवि वक्षषद मूलदि प्रात्म२२७ इस रे 'चन्द्रप्रभ सुगुरिण'(३२)वशगरदात्मन' । सिरि 'पुष्पदन्त' एक इक्षणवा वर वृक्ष'होस अक्षवेनेनागभरिणयुमरे हस बेल्लवत्त बदू ॥२२॥
अतर श्लोक को तीन लाईन यहाँ होनी थीं परन्तु यहां चार लाईन होने से प्रथम अक्षर सर्प की गति से पढ़ने से नहीं निकल सकता है । पाठक लोग जैन तीन लाईन बनाकर पड़ने से पहला पुन : पढ़ सकता है इस ग्रंथ में यही एक अद्भुत कला है।

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