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सिरि भवजय
श्री जिनेन्द्र देव के श्राराधक भक्त जन अर्थात् दिगम्बर जैन मुनि अपनी बुद्धि की विशेषता से विविधि भांति की युक्तियों से श्री बड़े सुन्दर ढंग से किया है। इसलिये समस्त भाषाओं से एवं मधुर है और मंगलकारी है | २३८३
भूवलय का व्याख्यान समन्विन भूवलय मृदु
यह दशवाँ अक्षर का अध्याय है । जिस प्रकार मरकतमणि अत्यन्त शुभ्र व दीप्तवान् होती है उसी प्रकार इस अध्याय के अन्तर काव्य में पांच, नौ सात, पांच और एक अर्थात् १, ५, ७, ६, ४, अक्षर रहने वाला ऋ भूवलय है ॥२३६॥
श्रेणीबद्ध काव्य में मूलाक्षर का अंक आठ, चार, सात और आठ अंक प्रमाण है । यही श्रेणीबद्ध काव्य का भंगांक हूँ १२४०| ऋ ८७,४८ + अन्तर १५७६५ = २४, ५४३
सर्वार्थ सिद्धि संघ बेगलोर-दिल्ली
अथवा
अ- १,७६, ०२२+२४, ५४३ = २,००,५६५ ।
सम्पूर्ण
ऊपर से नीचे तक यदि प्रथमाक्षर पढ़ते जायें तो प्राकृत भाषा निकलती है । उसका अर्थ इस प्रकार है:
ऋषिजनों में सुग्रीव, हनुमान, गवय, गवाक्ष, नील, महानील, इत्यादि EE कोटि जनों ने रंगीगिरि पर्वत पर निर्वाण पद को प्राप्त कर लिया। उन सबको हम नमस्कार करेंगे ।
इसी प्रकार ऊपर से यदि नीचे तक २७ वां अक्षर पढ़ते जायें तो संस्कृत गद्य निकल प्राता है। वह इस प्रकार है:
नतया शृण्वन्तु --
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं भगवान् गौतमोगली । मंगलं कुन्दकुन्दाद्या जीव धर्मोऽस्तु मंग ॥