Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 171
________________ १४० सिरि मृषलय सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलोर-दिल्ली इन तीनों विधि और विधान द्वारा सारे विश्व को इस अन्य में बांध ऋषभसेन प्राचार्य से लेकर वर्तमान काल तक तीन कम नौ करोड़ दिया है ।२१०॥ मुनियों के सब ज्ञान का सांगत्य (अर्थात् भूवलय का छन्द है) से शुरू मृग अर्थात् तियच जीव किस प्रकार से मालूम होते हैं उस विधि को। है।२२२।। बतलाया गया है ।२११।। यह धर्म अनादि काल से पाये हुए मदनोन्माद का नाश करनेवाला है। पक्षी जाति किस प्रकार से स्वर्ग में जाती है इस विधि को भी इस ग्रन्थ ।२२३। में बतलाया गया है ।२१२१ इस काव्य रूपी ज्ञान के हो जाने पर दुर्मल स्पी कर्म को नष्ट कर इस भूषलय में विश्व का सारा विषय उसके अन्दर भरा हुमा है।२१३ देता है ।२२४१ इस भवलय काव्य में यदि काल के दृष्टिकोण से देखा जाय तो यून तीन, पांच, सात और नौ यह विषय अंक है । सामान्य से २ अंक से परिवर्तन की विधि भी इसके अन्दर विद्यमान है ।२१४॥ पर्याद समान अङ्क से भाग नहीं होता है इस भवलय ग्रन्थ के ज्ञान से विषम सम्पूर्ण जीवों की रक्षा करनेवाला यह जैन धर्म क्या मानव की रक्षापङ्कसम अङ्क से भाग होते हुए पन्त में शून्य पाता है।२२॥ नहीं कर सकता है अर्यात अवश्य कर सकता है। इसी प्रकार गुरु के कहे हए इस अंक के ज्ञान से सूक्ष्म काल अर्थात् भोग भोगी काल की सम्पदा को धर्म का पाचरण करने से राजा शिवमार द्वारा पृथ्वी की रक्षा करने में क्या दिखाता है 1२२६॥ पाश्चर्य है ।२१॥ इस प्रकार समस्त ज्ञान को दिखाते हुए अन्त में आत्म सिद्धि को प्रदान - इस तृष्णादि में सम्पूर्ण जोव भरे हुए हैं। इन सब जीवों की रक्षा करनेवाला यह भूवलय ग्रन्थ है ।२२७१ करनेवाला यह जैन धर्म शुभकर है सर्व लक्षणों से परिपूर्ण है और स्वयं या श्री धरसेनाचार्य के शिष्य भूतवल्य प्राचार्य ने द्रव्य प्रमाण अनुवाम शास्त्र मोक्ष की इच्छा करनेवाले को इच्छा पूर्ण करता है ।२१६३ ।। से अंक लिपि को लेकर भूवलय ग्रन्थ की रचना की थी। यह भूवलय ग्रन्थ सम्पूर्ण जीवों को यश कर्म उदय को लाकर देनेवाला यह जैन धर्म । उस काल में विशेष विख्यात और वैभव से परिपूर्ण था । नूतन प्राक्तन जीव निर्वाह करनेवाले मनुष्य को सौभाग्य किस तरह देता है इसका इन दोनों कालों के समस्त ज्ञान को संक्षेप करके सूत्र रूप से भूवलप ग्रन्थ की समाधान करते हुए प्राचार्य जी कहते हैं कि यशकायी जीवों के दुःस को दूर। रचना की थी। इस भूवलय ग्रन्य के अन्तर्गत समस्त ज्ञान भण्डार विद्यमान करने के लिए पारा सिद्धि के उपाय को बताया है ।२१७॥ है ।२२८। यह जैन धर्म विष से व्याप्त मानव को गारुणमणि के समान विष से। श्री भूतवली आचार्य का अतिशय क्या है ? तो हर्षवद्धन उत्पन्न करने रहित करनेवाला है ।२१।। वाला इस भारत देश का जो गुरु परम्परा से राज्य की स्थापना हुई है यही जैन धर्म के अन्दर अपरिमित ज्ञान साम्राज्य भरा हुमा है।२१॥ सका प्रतिक्षय है ।२२६॥ दश दिशामों का अंत नहीं दिखाई पड़ता इस भूवलय रूपी जान के यह भारत लवण देश से घिरा हुआ है और इसी भारत देश के अंतर्गत अध्ययन से अपना जान दिशा के अंत तक पहुंचाता है ।२२०॥ एक बदमान नामक नगर था । उस वद्धं मान नगर के अन्तर्गत एक हजार यह धर्म हुडावसपिणीकाल का अादि ऋषभसेन प्राचार्य के ज्ञान को नगर थे । उस देश को सौराष्ट्र कहते थे और सौराष्ट्र देश को काटक (कर्नाटक) दिखाता है ।२२१॥ देश कहते थे।२३०॥

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