Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti
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सिरि भूवलय
सर्वार्थ सिद्धि ' बेलौर-दिल्ली नाकाग्र श्री सिद्ध काव्य ॥ १२७॥ व्याकुल हरि सिद्ध काव्य ।। १२८ ॥ श्राकाररहित दिव्यान्ग ।। १२६ ।। एकाग्र ध्यान सम्प्राप्त ।। १३० ।। श्रीकार वरजित शब्द ।। १३१॥ श्रोमकार गोचर वस्तु ॥१३२॥ ह, रोम् कार दाराध्य वस्तु ॥१३३॥ ह् रूम्कार दतिशय वस्तू ॥ १३४ ॥ हमकार राराध्य सज्ञा ।। १३४ ॥ हरीमकार गोचर वस्तु।। १३६ ।। ह रोम्कार पूजित गर्भ ॥१३७॥ श्रमकार दतिशय वस्तु। ११३८ ।।
शमका विरहित भूवलय ।। १४१ ।। सबै श्री समवसरण भूमियतिशय जवम्जव सम्हार भूमी ।। १४२ ।। गबदु | परमात्म सिद्धिय कारणुगमन व सिरिवर्धमान वाक्यांक॥ १४३ ॥ चरियद चारित्र्य लब्धि कारणवागे । अरहन्त भाषित वाक्य || १४४ ॥ तुव ॥ वंशवाद भव्यर सम्सारदन्त्यवु । जसदन्ते बन्दोदगेवुदु ॥ १४५॥ षदने लेवनेयद तोहव । पावन मंगल काव्य ।। १४६ ॥
१५० ॥
।। १६५।।
ह, रम्कार राराध्य सवज्ञ ॥१३६॥ ह रह कार गोचर वस्तु ॥१४०॥ * वकार मन्त्रदोळादिय अरहन्त । शिव पद कय्लास गिरि वा व र भद्र कारणवदनु मंगलवेन्दु । गुरु परम्परेय अ नु ॐ र सुर तिरियन्च नारकि जोवर । परि परि सम्यक्त्वद गौ उ सह तीर्थन् करवाति इप्पत्नात्कु । यश धर्थ तोवर तक दी व सागर गिरिगुहे कन्दरवा । ठाविनोळिव निवारण | भूवि मोॐ श्री वीरवाणि श्रोम्कार ।। १४७।। कावन सम्हार नेलवु ॥ १४८ ॥ श्रा विश्व काव्यांग धर्म ॥ १४६॥ ई विदद्य अरवत् नात्क् अंक ॥ वविध्य कर्म निर्जरेय ॥ १५१ ॥ श्री विषय पुण्य बन्धकर ।। १५२ || पावन शिव भट्टर विश्व ।। १५३ ।। ई विश्व वय्भवद् अंक ॥। १५४ ॥ काय पुण्याकुर व्रुक्ष ।। १५५ ।। देवर देवन क्षेत्र ॥ १५६ ॥ ई विश्वदर्शन ज्ञान ॥ १५७॥ एवेळवेनतिशय विदरोळ् ॥ १५८ ॥ श्री वीरनुपदेशदनुक ।। १५६ ।। विश्वदचिन चित्र ।। १६०१ कावनेरिव दिव्य भूमी || १६१|| श्री विश्व काव्य भूवलय ॥ १६२॥ कोटा कोटि सागर गळनळे युवा । पाटिय कर्म सिद्धांत || दादव ग खिसुव विधिय दुरव्यागम भाटान्क वयुभववमल ।। १६३॥ * Ferfare शभ्द हुट्टे जडव । क्रमवल्लवदर ए रगी केयु ॥ विमलजीवद्रवदिम्बवद्रव्यवे । श्रमलशब्दाग मबरियम् ॥१६४॥ ई* गहिन्दर नादिय मुन्दरा तागुवनदत कालवनु ॥ श्री गुरु मं गल पाहुडविम् पेद | रागविराग सद्ग्रन्थम् श्रो कारदो विन्दुवदनु कूडिललन्त। ताकिदवर ओम् श्रवगं श्रीकर सुखकर लोक मंगल कर। दाकार शब्द साम्राज्य ।। १६६ ॥ वयाकुल हरदन्क भंग ।। १६७ || साकारदतिशयवन्ग ॥१६८ श्राकार रहित दाकार आकारवदे निराकार ।। १७० ।। एक द्वित्रिचतु भंग ॥ १७१ ॥ आकडे ऐदारु भंग ॥ १७२ ॥ ज्योयो एळेनटु भंग ॥ १७३॥ साकु भाषे एकतर् हदिनेन्दु ॥ १७४॥ 'ओ' कार' अक्षर कळेय ।। १७५ ।। लोकद भाषेगळ् बबु || १७६|| श्री फारववु दुद्वि संयोग ।। १७७ ।। कलु मूरु अक्षरवम् ॥१७८॥ आकार प्रारु भनुगविदे ॥ १७६ ॥ हाकलु नाल्कु भन्गदोळ ॥१८०॥ जोकेयो हविनारु भन्ग ।। १८१ ॥ बेका ऐदु अवम् ॥१८२॥ श्राकार इप्पत्ऐद् श्रन्ग ॥१८३॥ एक मालेयोलारक्षरद ।। १८४ ॥ श्री कारद एप्पत् एरडु ।। १६५ ।। हाकलु एलु अक्षरव ।। १८६ ॥ साकार तुरिष्यत् अन्ग ॥ १८७॥ बेका एन्दु अक्षरच ॥१८८॥ साकलु एरिप्पत्तु ॥ १६६॥ ताकुव भाषे भूवलय ॥१०॥ * ळियुबुदादि अन्त्यदेर अक्षरगळ बळि सावु लं भाषे। बळिसार्दक्षुल्लक एल्नुररभाषे बळेसिरिमहाहदिनेन्टम् १९१ वदन्कवने रडकवत् श्राणिसे । सवियादि देव मानवरू ।। सवए कं दब महाभाषेगळ् पुट्टलु । भुविय समस्त मातृगळ ॥१४२॥ मिश्र वग्वारिण सरस्वति रूपिन । सर्वज्ज्ञ वाणियोम्दानि ॥ सार् द द्रव्यागम, श्री जिनवासिय । निर्वाहवतिशय पाठ ॥ १६३ ॥
॥१६६॥
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