Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 125
________________ सिरि भूवलय सर्वार्थ सिद्धिसंघ बंगलोर-दिल्ली fol atra तथा मानन इन तीनों को एक साथ समता से रखने वाला है। इसलिये है नष्ट करके विरोध पैदा करके एक ही धर्म को अनेक रूप मानने लगे हैं । द्वेष यह धर्माक है ।। १२१ ॥ भाव मिटा कर ऐक्य के लिए प्रेरणा देने वाला यह भूवलय है ॥ १३१ ॥ इन समस्त धर्मों को एकत्रित कर बतलाने वाले श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र भगवान् के धर्म का भी यह भूवलय प्रसिद्ध स्थान है। अतः धर्माक है ।। १२२॥ वस्तुतः सभी मानवों का धर्म एक है, जिसका कि इस भूवलय में प्रतिपादन किया गया है ॥ १२३॥ अन्य ग्रन्थों में अक्षरों को कम करके सूत्र की सूचना हो सकती है। परन्तु भूवलय ग्रन्थ में इस तरह नहीं हो सकता क्योंकि इसमें एक भाषा के साथ अनेक भाषाएं और अनेक विषय प्रगट होते हैं, अतः अन्य ग्रन्थों के सूत्रों के समान इस ग्रन्थ के सूत्र नहीं बन सकते । भूवलय के एक एक प्रक्षर में अनेकों सूत्र बनते हैं। इसलिए भूवलय ग्रन्थ सूत्र रूप है तथा यह ग्रन्थ विराट रूप भी है ॥१३२॥ प्रति शरीर में जो श्रात्मा विद्यमान है, वह उत्तम धर्म वाली है || १२४|| गत कल अनन्त काल तक बीता हुआ है और आने वाला कल भी अनन्त काल तक है अर्थात् आने वाला भूत काल से भी विशाल है इन दोनों की वर्तमान काल कड़ी के समान जोड़ता है ।। १२५ ।। आदि में रहने पर भी आदि को देख नहीं सकते, और अंत में रहने पर भी अंत को नहीं देख सकते, ऐसा जो अंक है वह ३४३ = नो अंक है । जैन धर्म में प्रतेक भेद हैं उन भेदों को मिटा कर ऐक्य करने वाला यह नव पद जैन धर्म नामक ऐक्य सिद्धांत है ।। १२६ ।। जगतवर्ती समस्त प्राणी मात्र के कल्याण करने वाले सभी धर्म नहीं हो सकते यद्यपि दुनिया में अनेक धर्म हैं परन्तु वे सभी धर्म कल्याणकारी नहीं हैं ॥१२७॥ जिस धर्मसे समस्त प्राणीमात्र का कल्याण हो उसी को सद्धर्म अथवा धर्म कहा जाता है, अन्य को नहीं ॥ १२८ ॥ सम्यग्ज्ञान के पांच भेद हैं, उन विभिन्न ज्ञानों की योग्यता को बताने वाला यह भूवलय है ॥ १२६॥ हमारा ज्ञान अधिक है और तुम्हारा ज्ञान अल्प है, इस प्रकार परस्पर विरोध प्रगट करके झगड़ने वालों के विरोध को मिटा कर सम्यग्ज्ञान को बतलाने वाला यह भूवलय है। अर्थात् परस्पर विरोध को मिटाने वाला तथा सच्चा ज्ञान प्राप्त कराने वाला यह भूवलय है ।। १३०॥ देव लोग और राक्षस (सज्जन और दुर्जन) एक ही प्राणी के सन्तान हैं। जैन जनता भगवान महावीर की परम्परा संतान रूप से अनुगामिनी है अर्थात् उनकी भक्त है । परन्तु कलिकाल के प्रभाव से जैसे पांडव और कौरवों ने एकता को तोड़ कर मास में विरोध पैदा किया उसी प्रकार जैन भाई आपसी प्रेम को अरहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय और साधु ये परमेष्ठी विभिन्न गुणों के कारण भिन्न रूप दिखने पर भी आध्यात्मिक देव दृष्टि से पांचों समान हैं इनमें कोई भेद नहीं है । अथवा समस्त तीर्थंकर देवत्व की दृष्टि से समान हैं, पूर्ण शुद्ध परमात्मा में जिन विष्णु शिव, महादेव और ब्रह्मा आदि नामों से कोई भेद नहीं होता ।। १३३|| अर्हृदादि देवों के वाचक अक्षरों से बना हुआ। मन्त्र भक्तों की रक्षा करता है ।। १३४॥ उपर्युक्त मन्त्रों को एकाग्रता के साथ जपने वाले को सातिशय पुण्य बन्ध होता है ||३५|| इसी के साथ-साथ उनको विनत भाव और अहिंसात्मक सद्धमं की भी प्राप्ति होती है ॥ १३६॥ यह भूवलय ग्रन्थ परम सत्य का प्रतिपादन करने वाला होने से सभी के लिये कल्याणकारी है ॥१३७॥ यह भूवलय का नवमांक अणुव्रत और महाव्रत का स्पष्टरूप से प्रतिपादन करने वाला है इसलिये अणु महान् (हनुमान) जिन देव का कहा हुआ यह अक है। उस हनुमान जिन देव की कथा रामाङ्क में बाई हुई है और रामाक यानी राम कथा भी मुनिसुव्रतनाथ भगवान की कथा में आई है। श्री मुनिसुव्रतनाथ की कथा प्रथमानुयोग में अद्भुत है । प्रथमानुयोग शास्त्र श्री द्वादशाङ्ग वाणी का एक अंश है । यह भूवलय ग्रन्थ द्वादशाङ्गात्मक है, इसलिये यह जिन धर्म का वर्द्धमाना है ||१३||

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