Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 146
________________ सिरि भूवलय सर्वार्थ सिदि संघ, मंगलोर-बिल्ली दवन यक्ष यक्षियरु ॥१६॥ बेविन हूवनित्तवह ॥१६॥ तावरे हूविन रसदे ॥२०॥ ई विश्व रसव कायदवा ॥२०॥ जोवकोटिगळ काय्दवरु।२०२॥ कावरु अणुव्रत पळनु ॥२०३॥ तावु बेट्टगळ तावरेय ॥२०४॥ ईवरु नेलद तावरेय ॥२०॥ श्रीबोर जलद तावरेय ॥२०६॥ ई विध मूरु तावरेय ॥२०७काविनोळ रसमरिणसिद्धि।।२०।। गोवरु हुबिन वरव ॥२०६।। कावर हवेप्पत्तेरडम् ॥२१०॥ तावु सिमहगळ लेक्कलि ॥२१॥ कापरु भरतार्य भुविय ॥२१२॥ कावरु महातिगळनु ॥२१॥ श्री वीर विक्रम बलरु ॥२१४॥ जीव हिमसेयनु निस्लिपरु ॥२१॥ कावरहिम्हिसेय बलदि ।।२१६॥ साबु दर्शनिकरागिरुत ॥२१७॥ फावर प्रतिकादि नेलेय।।२१८॥ श्री बोरवाणि सेवकरु ॥२१६॥ तावरे दलगनोलिहरु ॥२२०॥ देव बैंक्रियकषि धररु ॥२२१॥ कावरु प्रौदारिकर ॥२२२॥ देव देवियर तिवरु ॥२२३॥ पावन धर्म होतबर ॥२२४॥ नोवुगळळलनिल्लिपरु ॥२२५।। श्री वीर देव पूजकरु ॥२२६।। ताधु सिद्धरनु सेविसलि ॥२२७॥ श्री धीरगणितव कायद॥२२॥ दव देवियर भवलय ॥२६॥ श्री वीर सिद्ध भूवलय ॥२३०॥ इस रुख श्री समवसरण नाल्मोग सिम्ह । अरुहन पाद कमल श री ।। सरद नालियहोत्तुतिरुगुत बरुतिर्प । सिरिय देवागम पुष्पा२३१॥ गि* डवु अशोकवु पोडविय भव्यर : सगरवनु बधिसिरे श् री* जडद देहद रोग अातंक बाधिक्य । मडिय सायुगळनु केडिसि ॥२३२॥ दा नगळन्नेल ज्ञानदाळडगि । आनन्दवनेल्ल तरिसि ।। शाने पु* व्यवनोव पुष्पवृष्टियनीडु । वा नम्र प्रातिहाकि ॥२३३॥ लक मणवाद चामर अरबत्नाल्कु । सदर अरवलाए । क्षयवरदंक नवम दिव्य ध्वनि ! रक्षिपुन प्रोम् मोमबत्तुगळ ॥२३४।। तक्षण कर्म विनाश ॥२३५॥ सिक्षिप हन्नेरडंग ॥२३६।। हकवेळ मूवत् एरडम् ॥२३७।। प्रकटवादेरडु काल्तूरु ॥२३॥ ईक्षिप भामन्डलांक ।।२३९॥ लक्षद दुन्दुभिनार ॥२४०11 रक्षयद्वादश गणवे ॥२४१॥ अक्षरदंक हन्नेरडु ॥२४२॥ अक्षर वेद हन्नेरडु ॥२४३॥ लक्षिप प्रातिहार्याष्ट ॥२४४॥ अक्षरदष्टु मंगलव ॥२४॥ शिक्षण काव्यांक वलय ॥२४६।। श्रीक्षण मना प्राभृतवु ॥२४७॥ अक्षरदरक सान्गत्य ॥२४८॥ कुक्षि मोक्षद सिद्ध बंध ॥२४६॥ अक्षय पद प्रातिहार्य ॥२५०। शिक्षण लब्धान्क शून्य ।।२५१॥ अक्करदन्क भूवलय ॥२५२।। शिक्षण ग्रन्थ भूवलय ॥२५३।। * रितव हरिसुव प्रष्ट मन्गल द्रव्य । धेरसि प्राभूत पर दवदनु ।। परमात्म पादद्वयद एन्टक्षर बरेदिह पाहु ग्रन्थ २५४।। तिक रेय जमबू द्वीपद् एरड्डु चन्द्रादित्य । रिहवष्ट रूप द* अमल।। सरसिजाक्षरकाच्यगुरुगळऐवर दिव्या करयुगवानांक प्रन्या २५॥ भाक्ष रत वेशदमोघ वर्षषनराज्य । सारस्वतवेमबन्ग ।। सारा न क गरिएत दोळक्षर सक्कद । नूरु साबिर लक्ष कोटि ॥२५६।। या हातिराप्नसहाम्सिएन्द[अष्टम मुक्काल। सारविकेरडेऊन।स् तर अन्तर हदिनेछु साविरगळ्गे। सार[नेर नाल्बत्नाकुम्मनम् ।।२५७।। ८ने ऊ ६७४८+ अन्तर १६६५६=२५७०४ -१८=k अथवा असे 'ॐ' तक १,२६,७३८+ऊ २५७०४-.१,५२,४४२। ऊपर से नीचे तक प्रथमाक्षार पढ़ते पाने से प्राकृत गाथा बन जाती है वह इस प्रकार है ऊरएपमारणंबंड कोडितियं एक बोसलक्खाणं । बासट्टचेसहस्साइगिवालदुति भाया 1॥७॥ अगर बीच में से लेकर पढ़े तो-क्रमशः ऊपर से नीचे सक पढ़ने पर इस प्रकार संस्कृत निकलती है.उनको रचनानुसार लेकर, प्राचार्य श्री कुमव कुम्व प्राचार्यावि बामनाय से श्री पुष्पदंत...

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