Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 159
________________ १३४ सिरि भूवजय सर्वार्थ सिद्धि संघ बैंगलौर-दिल्ली इन दस प्रतिश्यों को ध्यान में रखते हुए भगवान के दर्शनकरना भगवान के संसारी जीवों के मन को आकर्षित करने की शक्ति तथा, समुद्र की जन्मातिशय का दर्शन करना है। भाव शुद्धि से यदि दर्शन करें तो शरीर लहरों में उठने वाले शब्द के समान भगवान की निकलने वाली दिव्य ध्वनि है। में रहने वाले रोग नष्ट हो जाते हैं । १००८ पंखुड़ियों के अग्रभाग में रहने । यह दिव्यध्वनि प्रानः, मध्यान, शाम को इस प्रकार तीन संध्या समय में निकलती वाले जिनेन्द्र देव के दर्शन करने से अपने शरीर में भी वह स्थिति प्राप्त हैं। और यह दिव्यध्वनि । महूर्त प्रमाण तक रहती है । इसके अतिरिक्त यदि होतो है । महर्षि इस प्रकार दस अतिशयों से युक्त जिनेन्द्र भगवान की उपासना कोई भव्य पुण्यात्मा जोब प्रश्न पूछता है तो उनके प्रश्न के अनुकूल ध्वनि करते हैं। शरीर की ऊंचाई की अपेक्षा न रखते हुए महिमा की अपेक्षा से निकलती है ।३०। महोन्नत शरीर वाले भगवान की पूजा करते हैं। जब इस रीति से जिनेन्द्र संसारी जोवों की जब ध्वनि निकलती है तब तो होठ के सहारे भगवान को अपने मन में धारण करके प्रसन्नता से व्यावहारिक कार्य करें तो निकलती है। परन्त भगवान को दिव्य भवनि इन्द्रियादि होंठ से रहित निकलती कार्य की सिद्धि होती है । इतना ही नहीं बल्कि पारा [एक धातु | की सिदिहै।३१॥ भी हो जाती है। भगवान के शरीर की इस दस विधि अतिशय को गुगगन क्रम भगवान की दिव्यध्वनि दांत से रहित होकर निकलती है ।३२१ से तम और विपमांक को लेकर गिनती करते जायं तो परमोत्कृष्ट (Higher भगवान की दिव्य ध्वनि तालू से रहित होकर निकलती है।३३। Mathe matics) गणित शास्त्र का ज्ञान भी हो जाता है उपरोक्त रीति से । अनेक भव्य जीवों को एक समय में ही जिनेन्द्र देव सभी को एक साथ भगवान की पाराधना कर तो बुद्धि ऋद्धि को कुशाग्रता भी प्राप्त होती है। पदेशापान कराते ३४.३५॥ । ६ से २२ तक । एक योजन को दूरो पर बैठे हुए समस्त जीवों को भगवान की दिव्य अध्यात्म रस परिपूर्ण रलत्रयात्मक यह देह है ॥२३॥ वाणी सुनाई देती है।३६।। यही वृषभादि महावीर पर्यन्त तीर्थकरों को देह है ।२४। शेष समय में गणधर देव के प्रश्न के अनुसार उत्तर रूप दिव्य ध्यान ऐसा विशालकाय यह भूवलय ग्रन्थ है ।२५। निकलती है ।३७४ एकसो योजन तक सुभिक्ष होकर उतने हो क्षेत्र में होनेवाले जीवों की इस प्रकार से भगवान की अमृतमय वाणी जब चाहें तब भब्य जीवों रक्षा होती है। भगवान का समवशरण आकाश में प्रवर गमन करता है। को सुनाई देती है।३। । मानव में जो इन्द्र के समान चक्रवर्ती हैं उन चक्रवर्ती के प्रश्न के अनुसार हिंसा का प्रभाव, भोजन नहीं करना, उपसर्ग नहीं होना, एक मुख होकर उत्तर मिल जाता है ।३६-४०। भो चार मुख दीखना, आंखों की पलक नहीं लगना १२७/ पादि से लेकर अन्त तक समस्त विषयों को कहनेवाली यह दिव्य समस्त विद्या के अधिपति, नाखून नहीं बढ़ना, बाल जैसा का वैसा ही ध्वनि है।४ रहना अर्थात् बढ़ना नहीं तथा अठारह महाभाषा ये भगवान के होती है ।२८ जीव, पदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये ६ द्रव्य है। ये ६ द्रव्य इसके अतिरिक्त सातसो छोटो भाषायें और सइनी जीवों के प्रकों से जिस जगह रहते हैं उसको लोक कहते हैं । दिव्य ध्वनि इन सम्पूर्ण ६ ग्यों के मिथित पक्ष भाषायें और भव्यजनों सम्पूर्ण जोवों को उन्हीं के हितार्थ विविध स्वरूप का विस्तार पूर्वक वर्णन करती है ।४२॥ भाषामों में एक साथ उपदेश देने की शक्ति भगवान में विद्यमान रहती है ।REE जीव, अजीव, माधव, बंध, संवर, निर्जरा और मोदा ये सात तत्त्व है। .

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