Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 166
________________ १४२ सिरि भूवलय.. जिनसेन (Jinasene ) अपने महापुराण में कहते हैंयमि समम् तलम् रारांसु साँगत्य एव सगतिहि ॥ वह यह भी कहते हैं कि संगध्या एक बहुत पुराना छंद था जिसका प्रयोग उनसे पहले होने वाले भी बहुत से बड़े बड़े कवियों ने किया था समय जिनसेन के महापुराण का नवीं शताब्दी का प्रथम चौथाई भाग है । त और आधुनिक कन्नड़ भाषा का प्रयोग इस ग्रन्थ को अपनो प्राचीनता से नहीं हटा सकता क्योंकि श्राधुनिक कन्नड़ भाषा की तरह की ही भाषा निम्नलिखित शिलालेखों में मिलती है (१) भूविक्रम का बीडारपुर शिलालेख । (२) नीति मार्ग का नरसापुर ग्रन्थ । श्रतः पाठकों को इस ग्रन्थ की पौराणिकता पर विश्वास करना ही पड़ेगा । इस ग्रन्थ और ग्रन्थकर्ता के समय के विषय में जो विवाद है उसका प्रधान कारण चार प्रमोघवर्षों का होना है। डेन्टोदुर्गा भी अमोघवर्षं ही पुकारा जाता था । और शिवमार जोकि कुमुदेन्दु जी से सम्बन्धित था वह पहला शिवमार ही है द्वितीय नहीं । अब ग्रन्थ को ही लीजिए । कुमुदेन्दु जी ने कन्नड़ भाषा के ६४ वर्ण बताए हैं जिनमें ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत भी मिले हुए हैं और अपना गणित विभाग तथा पूर्ण ग्रन्य कन्नड़, प्राकृत, संस्कृत, मागधी, पैशाची, तामिल, तेलगू आदि भाषाओं में लिखा। डा० एस० श्रीकान्त जी कहते हैं कि यदि भूवलय के प्रकाशित भाग ( चैप्टर १-३३ ) का संतोषजनक अध्ययन किया जाए तो निम्नलिखित बातें इस ग्रन्थ से पता लगती हैं (१) कनाड़ो भाषा ओर उसके साहित्य का ज्ञान कराने के लिये यह ग्रन्थ प्राचीन ग्रन्थों में से एक है तथा अन्य अनेकों विद्वानों के ग्रन्थों के विषय मैं भी, जो कि क्रिश्चियन शताब्दी के प्रारम्भ में हो लिखे गये थे, ज्ञान प्राप्त होता है । उदाहरण के लिये यदि यह ग्रन्थ पूर्ण प्रकाशित हो जाये तो चूड़ामस्ति जैसे प्राचीन विद्वानों के ग्रन्थों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो सकता है । (२) संस्कृत, प्राकृत, तामिल और तेलगू भाषा के इतिहास के लिये सर्वार्थ सिद्धि संध वेगलोर-दिल्ली यह हमारी आंखें खोलने वाला ग्रन्थ है । (३) हमारे भारतीय दर्शन और धर्म तथा विशेष तौर से जैन धर्म को ज्ञान प्राप्त कराने के लिए यह अपूर्व ग्रन्थ है, इससे प्राप्त सिद्धान्त आज मी हमारे विचारों को विशुद्ध कर हमें सद्मार्ग पर ला सकते हैं । (४) कर्नाटक और भारत के राजनैतिक इतिहास का ज्ञान प्राप्त करने के लिए यह ग्रन्थ एक नवीन सामग्री प्रदान करता है । क्योंकि इसमें राष्ट्रकद के राजा अमोघवर्ष और गंग राजा संगीत शिवमार के विषय में वर्णन है । (५) भारतीय गणित शास्त्र के इतिहास के लिए यह ग्रन्थ विशेष महत्व रखता है । वोरसेन जी की 'धवल ग्रन्थ' की टीका के आधार पर जो आजकल जैन गरिणत शास्त्र योर ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया गया है, उससे पता लगता है कि अधिक पहले नहीं तो नवीं शताब्दी में हो भारतीयों ने गति के अनेकों तरीके स्थानांक मूल्य (Place value) जोड़ के तरीके, समयोग भंग, विभाजन के विशेष तरीके, परिवर्तन के नियम, ज्यामिति और रेखा गरिणत के नियम (Geometrical and mensuration formulas ) अनंतांक गणित विधि (Theouries of Infinily ) प्रथम समयोग, द्वितीय समयोग श्रादि (The value of Permutation and combinatio) को भी जानते थे । कुमुदेन्दु जी का ग्रन्थ 'भूवलय' वीरसेन जी के ग्रन्थ से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण और आगे है । इस ग्रन्थ के लिए गम्भीर अध्ययन की आवश्यकता है । (६) हिन्दुओं के स्पष्ट विज्ञान के लिए भी यह ग्रन्थ महत्वपूर्णं सहायता देता है क्योंकि इसमें अणु विज्ञान (Physics), रसायन शास्त्र (Chemistry ), जीव-विद्या (Biology), औषध शास्त्र ( प्राराध्य और आयुर्वेद), भूगर्भ शास्त्र ( Geology ), ज्योतिष शास्त्र ( Astronomy ) इत्यादि का वर्णन है । (७) भारतोय कला का इतिहास भी यह ग्रन्थ बतलाता है क्योंकि यह भारतीय मूर्तिकला, चित्र कला तथा (loonography) के लिए एक अपूर्व साघन है। (८) रामायण, महाभारत और भगवद्गीता के दोहों की भोर भी विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए, जोकि इस प्रकार से गुंथे हुए हैं कि मह पहचानना कठिन हो जाता है कि इसमें धाधुनिक व्यक्तियों ने कितने नए क्षेपक

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