Book Title: Siri Bhuvalay
Author(s): Bhuvalay Prakashan Samiti Delhi
Publisher: Bhuvalay Prakashan Samiti

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Page 114
________________ सिरि भूवलय ३० सर्वार्थ सिद्धि संघ गौर-दिल्ली या* वाग दोरेखुदो प्राग अनेकांत । ताविन नयमार्ग दोरेये ॥ नावा य श होन्दे जनत्व लाभद सावकाशवे हृदिनात्कु ॥ १६२ ॥ आविध योग राहित्य ।। १६३० श्री कुल १६४॥ का कैलास मुक्ति ॥१६५॥ शुरी वीरवारिणय विद्ये ॥ १६६ ॥ नायु केन्तुव सिद्धि ॥१६७॥ कावक सत्यद लोक ॥ १६८ ॥ पावन परिशुद्ध लोक ॥ १६६ ॥ साबु हुदुर्गाळल्लदिह श्री ॥ १७० ॥ भाव अभाव राहित्य ।।१७१ || नोबुगळाशिष मुक्ति ॥ १७२ ॥ ई विश्व काव्य भुवलय ।। १७३॥ हरि हर जिन धर्मदरिषु मूरारु । सरसिजदलबक्षर * a* शवागे श्रोम्बत्तु कामदम् जनरिगे । हसिवु बायारिके निर् श्र* न* वदन्क सिद्धियकरण सूत्राक्षर 1 दवयव सर्वबुव सू* ति रेयु कालगळु ई बरुव मूरुगळलि । हरिव भव्यर भवदभ ॐ परदुगेय्यलु बंद लाभ ।। १७८ ॥ अरहन्त रूपिन लाभ ॥ १७६ ॥ अरहन्त रडरिद मार्ग ॥ १८२ ॥ चिरकाल विरुवसौभाग्य ॥ १८३॥ धरसेन गुरुगळ प्रन्ग || १८६ ॥ हृरुष वर्धनरादि भंग ।। १८७॥ अरहन्तराशा भूवलय ॥ १६० ॥ श्रोम्॥ बरुवन्कगरणनेयमूहकालबोळ कूडे । परिदुबंदिकाव्य सिद्धि ॥१७४॥ वैसेगेट्टु हदिनेन्दु इत्यादि भवरोग । हेसरि ल्लदन्ते होगुबुबु ॥ १७५॥ य ॥ सविय भाषेगळेन्टोम्देळर वस्य । श्रयुगळे मुरारुमूरु ॥ १७६ ॥ सत्यार्थसिद्धि सम्पदद एरडु भव परिशुद्ध जीव स्वभाव ॥ १७७॥ करुणेय मारिद लाभ ॥ १८० ॥ गुरु हम्सनाय सन्मार्ग ॥। १८१ ॥ सश्वराराधित वर्म ॥ १८४ ॥ गुरुपरम्परेयादि लाभ ॥१८५॥ परखकालदेसिद्धकवच ॥ १८८ ॥ हरिहर सिद्ध सिद्धांत ॥१८६॥ । तत्वार्थ सूत्र महार्थ प्रसन्गद | सत्यार्थ दनुभव मु च्* रितेय सान्गत्य रागदोळडगिसि । परितन्द विषयगळे ल च दुरिन 'श्ररी' भूवलय सिद्धांत दोछ । हुदुगिसि पेददिव्या गु * निकाल कालद प्रन्तर भावद । कोनेगल्पबहुत्व विन्तह र मनुजरोळ्यक्य वप्पन्न || १९५|| दिन दिन प्रेम वरुध्यंग ॥१६६॥ विनयवेल्लरिगे समांग ॥ १६६॥ जनपद नाडिन संग ॥ २००॥ जनरिगय्दने काल (भंग) दंग ॥ २०१ ।। कोनेगाररोळु इल्लवंग ॥ २०२॥ एनुवंगधर ज्ञानरंग ।।२०३ ।। जनरिगे [बह धरो] वशवाद धर्म || २०४ ॥ * पण चरण वेम्व द्वंत अहं तद । कोनेगे जैनर म न आ गमविदर 'श्ररो भागदेबंद का रागविरागसाम्राज्य ॥ प्रागु थ ॥ रत्न प्रकाश वर्धन दिव्य ज्योतिय । तत्व एक समन्वयद ॥१९१॥ अरहंत मुख पद्मयेने सर्व श्रन्गदिम् । होर बंदिह दिव्यध्वनिय ॥ १६२॥ र ।। पद पददक्षरदंक अंकदरेखे । अदर क्षेत्रगळ स्पर्शनय ॥ १६३ ॥ जिन धर्मवदु मानव जीवराशिय । धन धर्मवागिसिबंक ॥१६४॥ घन दुष्कर्म विध्वम्स ॥१६७॥ जिन शास्त्र वेल्लगेम्बंग ॥ १६८ ॥ ई ८७४८ + अन्तर ११६८८-२०,७३६= १८६ पहले श्लोक के श्रेणीबद्ध काव्य ईस मुहग्गहवयां भूवलय बोषवि रहियं शुद्धं । श्रागममदि परि कहियं तेरगबु कहिया हवन्ति तच्चत्था || ६ || * कानडी काव्य के मध्य में से निकलनेवाले संस्कृत श्लोक कारकं पुण्य प्रकाशकं पाप प्रशिकम् इदं शास्त्र हुभव भूवलय सिद्धांतनामध्येयं अस्य सूल ग्रन्थ .. ॥ त सेरि॥ जिनरेन्द्र नाल्केऴुएन्टुकाव्याक्षर । धनवाह्न सम्बरिथंक ॥२०५॥ एन्टेन्दु श्रम्बत्तु प्रोमो । तावक्षरद भूवलय ॥ २०६ ॥ अथवा श्रई ८४८५२+२०, ७३६ १०.५५,८८

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