________________
१६
श्रुतदीप- १
वरसिंगजी ने संवत् १६१३ में ज्येष्ठ वदि १० को की थी। जो मोटी पक्ष के नाम से प्रसिद्ध थी ।
दूसरी गादी - दूसरी गादी भी गुजराती लोंका गच्छ की ही थी। यह महाराष्ट्र के बालापूर में थी। इसकी स्थापना ऋषि कुंवर ने की थी। उस गादी को नानी पक्ष कहा जाता है। आज भी यह गादी वर्तमान है।
तिसरी गादी - यह गादी अहमदाबाद में स्थापित हुई । इसकी स्थापना ऋषि मेघजी ने की। वे ऋषि वरसिंग जी के शिष्य थे और कुंवरजी के उत्तराधिकारी थे। श्री पूज्य मेघजी ने विक्रम संवत् १६२८ में लोंका गच्छ के १८ यतियों के साथ यति जीवन का त्याग करके जगद्गुरु आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी के पास संवेगी दीक्षा का स्वीकार किया और वे उपाध्याय उद्योतविजय गणिवर के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
विक्रम संवत् १६९२ (या १७०९) वडोदरा गादी के श्री पूज्य वरसिंगजी के शिष्य यति लवजी ने सूरत में अपने गुरु का त्याग करके स्वतंत्र पंथ की स्थापना की। उन्होंने मुँह पर मुहपत्ती का बांधना चालू किया। उसी तरह अहमदाबाद में धर्मदासजी ने भी लोंका गच्छ से पृथक् होकर मुहपत्ती बांधकर स्वतंत्र पंथ की स्थापना की। वह आठ कोटी ढूंढिया मत के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बालापूर की गादी के श्री पूज्य शिवजी के एक शिष्य द्वारा भी वि. संवत् १७१२ में लाहोर (पंजाब) में स्वतंत्र मत की स्थापना हुई। इस मत में से पंजाब में अजीव पंथ निकला। इन सभी मतों के अलग-अलग नाम प्रचलि हुए। जैसे ढूँढिया, बावीस टोला, बारा पंथी, स्थानकवासी, स्थानक मार्गी इत्यादि। यहीं परंपरा आगे जाकर के स्थानकवासी संप्रदाय में परिवर्तित हुई।
प्रज्ञाप्रकाश षट्त्रिंशिका के कर्ता लोंकागच्छ के थे परंतु उनका संबंध कौन-सी शाखा के साथ था यह अविदित है। एव इस कृति का कालनिर्णय भी नहीं हो सका है। जैन परंपरानो इतिहास भाग ३ (पृ. २६८) के अनुसार गुजराती लोंका गच्छ की यति परंपरामें ऋषि जिनदासजी हुए। उन्होंने संवत् १९१० में आगरा में लोहा मंडी में प्रज्ञाप्रकाश (पत्र ५) ग्रंथ लिखा था। उस समय लोंका गच्छ के पंडित जसवंत गणि के शिष्य यति रूपसिंहजी उनके साथ थे। आगरा के चिंतामणि पार्श्वनाथ ग्रंथ भंडार के ग्रंथों की प्रशस्ति पुष्पिकाओं के आधार पर यह जानकारी मिलती है। आगरा का यह भंडार प्रायः कैलाससागर सूर ज्ञानमंदिर कोबा में स्थानांतरित हुआ है।
भांडारकर की प्रत में अंतिम श्लोक में कर्त्ता ने अपने गुरु के नाम का उल्लेख नहीं किया है केवल वे लोंका गच्छ के थे ऐसा उल्लेख किया है। अतः इस ग्रंथ के कर्त्ता अज्ञात है। अपने बारे में कर्त्ता ने पहले श्लोक मे 'नवीनपाठी' इस विशेषण द्वारा परिचय दिया है। इससे अनुमान होता है कि अपनी विद्यार्थी अवस्था में उन्होंने इस कृति की रचना की है। विद्यार्थी अवस्था में अपना नाम प्रगट न करने की भावना स्वाभाविक ही है।
विषय परिचय
प्रस्तुत कृति में उपदेशपरक व्याख्यान किया गया है। जिसमें प्रधानतः मानव के दैनिक व्यवहार में उपयुक्त तथा पारलौकिक मुद्दों के ऊपर विचार किया गया है। उनमें प्रमुखतः गुरु के महत्त्व को बताया है। उसके साथ-साथ शील का भी जिक्र करते हुए कहा है कि शील के बिना सब कुछ सूना है। अर्थात् शील ही सबसे बडा व्रत है। इन जैसे विचारों को रचकर कृतिकार में गागर में सागर भरने जैसा महान कार्य किया है।
हस्तप्रत परिचय
इस कृति का संपादन दो प्रत के आधार से हुआ है। एक प्रत भांडारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टिट्युट पुणे तथा दूसरी जामनगर भांडार से प्राप्त हुई। इनका संक्षिप्त परिचय क्रमशः प्रस्तुत करते हैं।