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प्रज्ञाप्रकाशषत्रिंशिका
(हिन्दी अन्वयार्थ) संसार में रहने वालो को हमेशा पैसे की चिंता सताती है, पुत्र की चिंता परेशान करती है, पत्नी की चिंता हैरान करती है, भाईयों की चिंता खा जाती है, इस संसार में हर एक आदमी चिंता में डूबा हुआ है। किसी को जरा सा भी सुख नहीं।
(बा) गृहावासमध्ये. गृहस्था. कहेतां ग्रहस्थावासने विर्षे ग्रहस्थनें रेतां जीवनें नित्यप्रतें द्रव्य उपार्जवानी चिंता दीहाडी छे बेटाबेटीनी वली चिंता जरति। वली सदा मंत पोतानी दारा जे स्त्रीनी आरत्यप्रतें नित्य बंधवकुटंब जातनी चिंता वलीपण सुखचिन्ता. सुख थकी चिंता होय अत्यंत ते जीवनें वलीपण परणवानी ज चिंता होय कोइ पण सुख नथीं।।३०॥
गिरीणां यथा राजते रत्नसानः सुराणां सुरेन्द्रो नराणां नरेन्द्रः। जिनानां जिनेन्द्रो ग्रहाणां च चन्द्रो व्रतानां तथा राजते ब्रह्मचर्यम्॥३१॥(भुजंगप्रयात) (हिन्दी अन्वयार्थ) पर्वतो में मेरु पर्वत उत्तम है, देवो में इन्द्र उत्तम है, आदमी में राजा उत्तम है, भगवान में जिनेन्द्र उत्तम है और व्रत में ब्रह्मचर्य उत्तम है।
(बा) गिरीणां कहेतां पर्वतमाहे जिम मेरुपर्वत सर्वेमाहें मोटो मेरुपरवत छे, सराणां कहेतां सुर जे देवतामांहे जिम इंद्र वली नरेंद्रमांहे जिम चक्रवर्ती जिम केवलीमाहे जिन तीर्थंकर ८८ ग्रहमांहें जिम चंद्रमा महंत कहीयें, अने. वली वली सर्वे व्रतमांहे जी मोटो छे सीयलव्रत॥३१॥
परस्त्रीप्रसङ्गादनेकोऽस्ति दोषो व्रतस्य प्रणाशो गुणस्य प्रणाशः। नरेन्द्रस्य दण्डो जनानां च दण्डो विषाऽऽभो न कार्यः परस्त्रीप्रसङ्गः॥३२॥(भुजंगप्रयात) (हिन्दी अन्वयार्थ) परस्त्री में आसक्त होने में अनेक दोष है। व्रत का नाश होता है। गुणों का नाश होता है। राजा का दंड होता है। लोगों का दंड होता है। परस्त्री का संग विषतुल्य है। कभी भी परस्त्री संग नहीं करना चाहिए।
(बा)परस्त्री कहेता पारकी अस्त्रीना प्रसंगथी, अथावली भोगथकी अनेक दोष ते कहे छ। प्रथमतो व्रतनो नास१ वली गुणनो पण नास२, राजानों दंड होय३, वली लोक अपवाद करे४, वीस्वास न करे कोइ पण ५, वलीपण परअस्त्री प्रसंगो कहेवाय एहवं जाणी भला जे नर पुरुषनें ए एहवो असंख प्रकारे परअस्त्रीनो प्रसंग ता वारवो न करवो वली परस्त्रीना प्रसंग अथवा वली परस्त्रीना भोगना करवा थकी निश्चे ज नरक प्रतें जाएं जिम जग --हगराजावत्॥३२॥
यथा याति सूर्याऽवलोकेऽक्षितेजो तथा याति रामाऽवलोके जनानाम्। महाब्रह्मचर्याऽक्षितेजो हि केचित्(?) न सूर्ये न नार्यां च दृष्टिस्तु देया॥३३॥(भुजंगप्रयात) (हिन्दी अन्वयार्थ)सूर्य को साक्षात् देखने से आंखो की रोशनी चली जाती है। उसी तरह स्त्री को देखने से ब्रह्मचर्य का तेज चला जाता है। सूर्य और नारी के सामने कभी देखना नहीं चाहिए।
(बा) जिम जाए आंखनुं तेज ते सूर्य सामू जोते थके आंखनुं तेज जाए, तिम जाए परनारीने जोवे कीरी निश्चे ज अशुभगति मांहे जाय। महाब्रह्मचर्य कहेतां शीलव्रतरूपं आंखनूं तेज जाए सूरज आंखपरें जाणवू ते प्रीछी कां छे ते माटें सूरज मांडलने विर्षे अनेवली अस्त्रीनो मंडल एक दृष्टी ज होवें॥३३॥
अनङ्गाग्निधूमाऽन्धकारेण कामी न जानाति मार्ग कुमार्गं च किञ्चित्। न जानाति कार्यं कुकार्यं च किञ्चिन्न जानाति साधु कुसाधु च किञ्चित्॥३४॥(भुजंगप्रयात)