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श्रुतदीप-१
सहिऊण तहा दुक्खं अट्टज्झाणं करेसि किं अहुणा?।
तरिउं महासमुद्धं किं झूरसि गोपए पत्ते॥१७७॥ (अर्थ) उस प्रकार दुःख को सहन करके आर्तध्यान क्यों कर रहा है?, महासमुद्र को पार करके
सहियाणि जाणि पुव्विं दहाणि इत्तो अणंतभागं पि।
जइ सहसि जीव! संपइ ता पाविसि सिवसुहं विउलं॥१७८॥ (अर्थ) रे! जीव!(तु)पहले जो दुःख सहन किए उससे अनंत भाग भी(दुःख)यदि तु सहन करता है(करेगा), तो अभी तु विपुल ऐसे मोक्ष सुख को प्राप्त करेगा।
तह कुणसु जीव! अहुणा अक्कमिउं जह चउत्थमवि चउगं।
अक्खयमव्वाबाहं अणुत्तरं पावसे सुक्ख॥१७९॥ (अर्थ) रे! जीव! वैसा कर। जैसे चतुर्थ चतुष्कं(संज्वलन) का उल्लंघन करके अक्षय(जिसका नाश नही होता), बाधा रहित, जिससे श्रेष्ठ कोई नही ऐसे सुख को प्राप्त करेगा।
किं बहुणा बहुणो वि हु तत्तं जह गोरस्सययमप्पं।
अप्पोवएसमालाइ तत्तमिणमो तहा मुणसु॥१८०॥ (अर्थ) ज्यादा कहने से क्या? आत्मोपदेशमाला का इस तत्त्व को वैसे जानो, जैसे गोरसमयमाहात्म्य।
तह पढसु सुणसु जंपसु कुणसु करावेसु मुणसु ज्झाएसु।
गच्छसु चिट्ठि निसीयसु जह धम्मपहा न चुक्केसि॥१८१॥ (अर्थ) वैसा पठन करो, सनो, बोलो, करो, करके लो, जानो, ध्यान करो/स्मरण करो, जाओ, खडे रहो और बैठो जिससे(तुम) धर्म रूपी मार्ग को न छोडो।
॥इति श्री आत्मोपदेशमालाप्रकरणं समाप्तम्।।
॥श्रीः॥शुभं भवतु॥