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श्रुतदीप-१
नाणं दंसणमणहचरणं रयणत्तयं इमं नेयं।
इंदिय-कसाय-विसया उवसग्ग-परीसहा चोरा॥१६२॥ (अर्थ) ज्ञान, दर्शन, पापरहित(चारित्र) इन तीन रत्न को जानना चाहिए तथा इंद्रिय, चार कषाय, विषय, उपसर्ग, परीषह ये चोर हैं।
सारधम्मरयणावहारयं चोरसित्तमिणमो महाबलं।
जाव पावनजिणेसि सव्वहा ताव मुत्तिनगरं न पावसे॥१६३॥ (अर्थ) सारभूत ऐसे रत्नरूपी धन का हरण करने वाले चोर सैन्य महा बल वाले हैं,(तु) जब तक पाप को नहीं जीतता है, तब तक सर्व प्रकार से मुक्ति रुपी नगर को प्राप्त नहीं होगा।
___ एएहिं चोरेहिं उईरियं बहु गणिज्ज दु(खं) मणसा वि मा तुम।
पुरा वि एए जिणिओ महाभडे गया अणंता रिसिणो महापयं॥१६४॥ (अर्थ) तु इन चोरों के द्वारा उत्पन्न ऐसे बहुत दुःख को मन से भी मत गिनना, पहले भी इन महान् भटों(शत्रु) को जीतकर अंनत ऋषि महापद(मोक्ष) को गए।
भोगा रोगा जोगा निरुवमरूवेण मोहियमण व्व।
उवमारहिया नियनियसत्तीए जं असेविंसु(विसुं)॥१६५॥ (अर्थ) भोग, रोग, योग, निरुपम रूप से मोहित मन वाले की तरह उपमा से रहित ऐसे खुद खुद की शक्ती से सेवा करते है।
भोगेहिं रोगेहि य एगणंतो धन्नो महप्पा स सणंकुमारो। जो नाम साहम्मियभाववद्धारागुतपत्तो य सणंकुमारे॥१६६॥ (भोगे हि रोगे हियए गणंतो धन्नो महप्पा स सणंकुमारो।
जो नाम साहम्मियभावबद्धादरोववण्णो य सणंकुमारे) (अर्थ) भोगों को, रोगों के समान गिननेवाले महात्मा सनत्कुमार धन्य है जो साधर्मिक भाव का आदर करके सनत्कुमार नामके देवलोक में उत्पन्न हए।
धन्नो गयसुकुमालो सिरम्मि दियखवियग्गिणा जस्स।
केस-तय-अट्ठि-मिसओ दटुं(ड्ढं) जम्मं जरामरणं॥१६७॥ (अर्थ) माथे पर दिप्त खदिर अग्नि से केश, त्वचा, अस्थिओं के निमित्त से जिसके जन्म, जरा, मरण जल गए वह गजसुकुमार धन्य है।
देहाओ नेहठाणा पहीणनेहा वि केवलायवओ।
जस्साइसारमिसओ मलो व सासा वि नीहरिओ॥१६८॥ (अर्थ) केवल ज्ञानी रूपी सूर्य से जिसने स्नेह को खतम किया है, ऐसे जिनके देहसे स्नेह गण निकल गए है और अतिसार के बहने से सांस की तरह मल भी गया।