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श्रुतदीप-१
हिवै चरित्रना आठ अतिचार लागा हुवै ते किम ? इर्यासमति १ भाषासमति २ एषणासमति ३ आदांनभंड-निखेवणासमति ४ उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाण पारठावणीयासमति ५ मनोगुप्ति ६ वचनगुप्ति ७ कायगुप्ति ८ एवं पांच (समिति) त्रीणि गुप्ति विराधी हुवै। इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां) ते मिच्छा मि दुक्कडं॥३॥
वली उभयकाल पडिकमणो कीधो न हुवै। अथवा कालवेला टाली अकालै कीधो हुवै। अथवा छती सक्तं बैठां पडिकमणो कीधो हुवै। वांदणा बारह आवर्त भली परै साचव्या न हुवै। प्रभातनो पडिकमणो आगासै कीधो हुवै। पडिकमणांमांहे निद्रा विकथा कीधी हुवै। दिवसमाहै पांच वार सिज्झाय ध्यान न कीधो हुवै। अहोरात्रमांहे सात वार चैत्यवंदन न कीधा हुवै। पच्चखाण पार्या न हुवै। पउण' पडिलेहण आघीपाछी कीधी हुवै। ओघा, मुंहपत्ती, वस्त्रपात्र प(डि)लेह्या न हुवै। सांझे बारह १२ बाहिर, बारह १२ मांहे, एवं २४ थंडला, च्यार कालग्रहणना मंडल एवं २८ मांडला कीधा न हुवै। राइ संथारा मुंहपती पडिलेही न हुवै। आवस्सहि निस्सिहि प्रमुख दसविध चक्रवाल समाचारी साचवी नहीं हुवै। सूत्रपोरसी, अर्थपोरसी साचवी नहीं हुवै। कारण विना दिवस निद्रा कीधी हुवै। रात्रे पोहर उपरंत निद्रा कीधी हुवै। राइ प्रायश्चित न कीधो हुवै। थापना पडिलेहवी वीसर गइ हुवै। थानक बै(पै)सतां 'अणुजाणह जस्सवग्गहो होइ त्ति' एहवं वचन न कहयुं हुवै। रात्रे अकाले थंडलै गयो हुवै। कालातीत, क्षेत्रातीत अन्नपाणी प्रमुख भोगव्या हुवै।
छती शक्ते अणसण १ उणोदरी २ वृत्तिसंक्षेप ३ रसत्याग ४ कायक्लेस ५ संलीनता ६ ए बाह्य तप; फेर गुरु समीपै पाप लागैरी आलोयण लेवै ते प्रायश्चित तप ते आलोयण न लेवै १ विनय वडा साधुरो साचव्यो न हुदै, २ वेयावच्च बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी, गीतार्थगुरु, असमर्थ साधु प्रमुखनो न कीयो हुवै ३ सज्झाय वाचना १ पृच्छना २ परावर्तना ३ अनुप्रेक्षा ४ धर्मकथा पांच प्रकारे न कीधी हुवै। पिंडस्थ १ पदस्थ २ रूपस्थ ३ रूपातीत ४ ए च्यार ध्यान न कीधा हुवै। आर्तध्यान रौद्रध्यान कीधा हुवै। काउसग्ग दुःखक्षय, कर्मक्षयनो कीधो न हुवै। इत्यादिक प्रकार करी बारै भेदै तपस्या साचवी न हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां) ते मिच्छा मि दुक्कड।।३॥
वली मनोवीर्य १ वचन वीर्य २ कायवीर्य ३ धर्मस्थानकै फोरव्या न हवै। नोकारसी १ पोरसी २ साढपोरसी ३ परमड्ढ ४ अवड्ढ ५ एकासणो ६ ब्यासणो ७ नीवी ८ आंबिल ९ एकलठाणो १० उपवास ११ गंठसी १२ मुठसी १३ प्रमुख छती शक्ति कीधा न हुवै। अथवा करीने भागा हुवै। अथवा पारवा वीसर गया हुवै। इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां) ते मिच्छा मि दुक्कडं कृतं देय।।४॥
वली यतीनो दशविधि धर्म विराध्यौ हवै। ते किम ? क्षमा न कीधी १ मार्दव- अहंकार कीधो हवै २ आर्जव- कपट कीधो हुवै ३ मुक्ति- लोभ कीधो हुवै ४ तपस्या न कीधी हुवै ५ सतरै भेदे संजम पाल्यौ न हुवै ६ सत्य बोल्यो न हुवै ७ सौच- अदत्तादांन निषेध न कीधो हुवै ८ आकिंचण-निःपरिग्रहनो निषेध न कीधो हुवै ९ ब्रह्मचर्य पाल्यो न हुवै १० इत्यादि प्रकार करी दशविधि यतिनो धर्म विराध्यो हुवै इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां) ते मिच्छा मि दुक्कड॥५॥
वय५समणस्स धम्म१०संयम१७वेयावच्चं१० च बंभगुत्तीओ९।। नाणाइतियं३ तवो१२ कोहनिग्गहो४ चरणमेयं तु १॥ ए चरणसत्तरी। पड(पिंड)व(वि)सोही४ समिई५ भावण१२ पडिमा य१२ इंदियनिरोहो५। पडिलेहण २५ गुत्तीओ३ अभिग्गहा४ चेव करणं तु १॥ ए करणसत्तरी।
एवं चरणसत्तरी करणसत्तरी १४० बोल विराध्या हुवै। इणभव परभव जातां (जाणतां अजाणतां) ते मिच्छा मि दुक्कडं। इति दुष्कृतगर्हा॥६॥
१. पादोन पौरिषी