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(अर्थ) परमाधार्मिक देवों के द्वारा दी हुई वेदनाएँ पहली तीन और छठी पृथ्वी में तथा एक दूसरे से निर्मित, क्षेत्र और स्वभाव से उत्पन्न दुःख सातों पृथ्वी में होती है।
एवंविहनरएसुं, कुंभीए (त)त्ततिल्लभरियाए । अहवयणे डज्झतो, उप्पज्जइ जाव नेरइओ ॥ ९४ ॥
(अर्थ) इस प्रकार नरकों में गरम तेल से भरे हुए नीचे मुखवाले घडे के अंदर जलता हुआ नारकी जीव उत्पन्न होता है। तं दट्ठूणं निहिमिव, हरिसेणं कलयलं पयासिंता। परमाहम्मिय-असुरा, खणेण धाविंति अह अहमा ॥ ९५ ॥
(अर्थ) बाद में उस(जीव) को खजाने की तरह देखकर आनंद से कलकल व्यक्त करते हुए परमाधार्मिक असुर एक क्षण में उसकी ओर दौड़ते हैं।
लहुय-मुह-कुंभिणीओ, अनिस्सरंतं करित्तु खंडाइं।
कड्ंति जहा गोलं, नालियराओ अखंडाओ ॥९६॥
श्रुतदीप-१
(अर्थ) छोटे मुखवाले घडे से वैसे टुकडे करके (उस जीव ) को निकालते है जैसे अखंड नारीयल से गोला खिंचकर निकालते है।
अह तक्खणेण तत्तियमित्ततणु पावकम्मणा जायं। चुन्नं करिति सुहुमं, सिलपुत्तेणं सिलाउवरिं॥९७॥
(अर्थ) उसी क्षण में पापकर्म से उत्पन्न शरीर का शिलापुत्र से शिला के उपर सुक्ष्म चूर्ण करते है। तत्तो वि तहा जायं ...
.सि मोहमूढो पहरतिगं जोयणतिगं च ।
कालमणंतं लोयं खय एओ इत्थसमयम्मि लंमिच्छत्त मूढमई ॥ ५१ ॥ (कुछ अक्षर जादा है।)
धम्माधम्म- सुहासुह-जीवाजीवाइवत्थुदेसणयं ।
तुमए अलद्धपुव्वं, लद्धं दिसि व्व सम्मत्तं ॥ १५२॥
(अर्थ) तेरे द्वारा पहले कभी न मिला ऐसा धर्म-अधर्म, सुख-असुख, जीव-अजीव इत्यादि वस्तुओं का उपदेश सम्यक्त्व दिशा की तरह मिला।
रागाई दोसजढो देवो गुरुत्तणो (मो) विसुद्धचारित्तो। केवलिभणिओ धम्मो इय सम्मत्तं छुदा (बुहा) बिंति॥१५३॥
(अर्थ) राग आदि दोष का त्याग किया है, ऐसे देव, गुरुश्रेष्ठ, शुद्ध चारित्र है जिसका ऐसे केवली ने धर्म कहा है, इसको बुद्धिवान् लोग सम्यक्त्व कहते हैं।
१. ९८ से १५० तक ५३ गाथा नहीं है