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आत्मोपदेशमाला-प्रकरणम्
(अर्थ) ज्वालाओं की माला से भयंकर खादिर वृक्ष के लकडी में पैदा हुई अग्नि जिसप्रकार तप्त होती है उससे अनंत गुना ताप नरक की पृथ्वी में होता है।
हेमंतमासं (स) पडियं, सीयं सहिमं (अं?) जहा हवइ सीयं । एगे निरयपएसो (से), तओ वि सीया (यं) अनंतगुणं ॥ ८६ ॥
(अर्थ) हेमंत मास में पडी हुई ठंडी जितनी शीत होती है, उससे भी अनंत गुनी ठंडी एक नरक प्रदेश में होती है।
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अइभीसणं करालं, सुतिक्ख (धा) रं जहेव करवालं । इत्तो वि य णंतगुणं, तिक्खा निरयाण भूमीओ ॥ ८७ ॥
(अर्थ) जिस तरह से अति भयंकर, उँचे, सुतीक्ष्ण तलवार की धार होती है उससे भी अनंत गुनी तीक्ष्ण नरकों की भूमियाँ
होती हैं।
होइ जहा दुग्गंधं, कडेवरं मयग-शुणग-आसाणं। इत्तो निरयपएसा, अणंतगुणियसुदुग्गंधा॥८८॥
(अर्थ) जैसे मरे हुए कुत्ते, घोडे का शव दुर्गंधित होता है, इससे भी ज्यादा दुर्गन्धिवाले नरक के प्रदेश होते हैं।
राई जहा अणाहा, सनीर-नीरय-जुया भवे सतमा।
तेणंतगुणंतगुहिरंधयारघोरा महानिरया॥८९॥
(अर्थ) जैसे चंद्र रहित और पानी सहित बादलों वाली रात्री अंधेरी होती है उससे अनंतगुण गहरे अंधकार से घोर महानर
होतें हैं।
ते पुण रयणा सक्कर- वालुय-पंकप्पहा य धूमतमा । तमतमपहा य सत्त वि, पुढवीओ पावरुक्खफलं॥९०॥
(अर्थ) वे फिर रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा, तमस्तम ( महातम ) प्रभा और सात भी पृथ्वियाँ पाप रूपी वृक्षों का फल होती है।
एगं ति-सत्त- दसगं सतस्स (रस) बावीस चेव तेतीसं ।
इय सागरोवमाइं, सु(स)त्तसु पुढवीसु परमाउ॥९१॥
(अर्थ) एक, तीन, सात, दस, सतरह, बाईस, तैतीस सागरोपम इस प्रकार नरक की सातों पृथ्वियों में उत्कृष्ट आयुष्य होते हैं।
देहं सत्तमपुढवीनेरइयाणं धणूण सयपणगं । अद्धद्धहीणमित्तो, नायव्वं सेसपुढवीसुं॥९२॥
(अर्थ) सातवी पृथिवी के नारकों का शरीर - प्रमाण पाँच सौ धनुष्य होता है बाकी पृथ्वियों में आधा आधा कम प्रमाण जानना चाहिए।
परमाहंमिय-विहिया, वियणा तिसु आइमासु अह छट्ठ। जाव परुप्परविहिया, खित्तसहावा य सत्तसु वि ॥ ९३॥