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श्रुतदीप-१
एवं रे जीव! तुमं, बोहिं दितो अवरजीवाणं।
जइ अप्पणा न बुज्झसि, तहेव ता दुग्गई तुज्झ॥१६॥ (अर्थ) इस प्रकार अरे जीव! अन्य जीवों को बोध देता हुआ तू यदि आत्मा के द्वारा बोधित नहीं होता है तो तेरी दुर्गति है।
_ विज्जासाहणुवायं, जड़ साहितो वि को वि अवरेसिं।
सो अप्पणा न साहइ, ता सिज्झइ तस्स किं विज्जा?॥१७॥ (अर्थ) यदि कोई(पुरुष) दूसरों को विद्या की सिद्धि के उपायों की साधना करवाता हुआ वह आत्मा के द्वारा साधना नहीं करता है तो क्या उसकी विद्या सिद्ध होगी?
साहितो वि तुमं तह, अवरेसिं सिद्धिसाहणोवायं।
जइ न समायरेसिं सयं ता सिद्धिं नेव पावेसि॥१८॥ (अर्थ) तथा तू दूसरे जीवों से सिद्धिसाधन के उपायों को साधते हुए भी यदि खुद उसका आचरण नहीं करता है तब तक सिद्धि की प्राप्ति नहीं होगी।
जेसिं करेसि तत्तिं, तुह तत्तिं ते वि किं न काहिंति।
ता कुणसु अप्पणु च्चिय, तिए पारं न पाविहिसि॥१९॥ (अर्थ) जिनकी तुम तृप्ति करते हो क्या वे तुम्हारी तृप्ति नहीं करेंगे? अतः आत्मा की तृप्ति करो, उससे तुम पार नहीं जाओगे?
दंसेसि जह परेसिं, संसारभयं न अप्पणो तह किं?।
रे दरम्मि जलंतं, पासेसि नो अप्पए हिठ्ठा॥२०॥ (अर्थ) जिस प्रकार संसार का भय दूसरों को दिखाता है लेकिन अपने आप को क्यों नही? अरे दूर में लगी आग को देखता है लेकिन आत्मा में लगी आग को नहीं देखता।
संसारोदहिमज्झे, नियजीवस्सावि निवडमाणस्स।
न करेसि दइयं जइ तं, ताव कहं अवरजीवेसुं?॥२१॥ (अर्थ) जिस प्रकार संसाररूपी सागर में गिरते हुए अपने आत्मा की(पर) भी तू दया नहीं करता है, तो फिर अन्य जीवों पर(दया) कैसे करेगा?
अकुणंतो जह निययं, परोवइटुं च ओसहं रोगी।
गव्वेण मरइ विज्जो, सज्जीकयबयलोगो वि॥२२॥ (अर्थ) जैसे अपने पास का तथा दूसरे के द्वारा बताया गया औषध न करता हुआ रोगी मरता है। उसी तरह बहुत से लोगों को ठीक करनेवाला वैद्य भी गर्व से मरता है।
___ एवं तुमं पि निययं, परोवइटुं च धम्मउवएस। ।
अकुणंतो पडसि भवे, नित्थारियबहुयलोगो वि॥२३॥ (अर्थ) इस प्रकार बहुत लोगों को तारनेवाले तुम भी अपने या दूसरों द्वारा उपदिष्ट धर्मोपदेश का आचरण नहीं करते हुए भव(बंधन) में गिरोगे।