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आत्मोपदेशमाला-प्रकरणम्
किं पढिएणं बहुणा?, किं वा गुणिएण? किं व मुणिएणं?।
जाव न बोहसि अप्पं, तुसभूयं ताव तं सव्वं॥८॥ (अर्थ) अधिक पढने से क्या? अधिक गुणों से क्या? अधिक जानने से क्या? जब तक आत्मा को नहीं जानता तब तक वह सब छिलके के समान हैं।
अवरजणबोहजणया, बहु(ह)वे वि नरा नडुच्च(व्व) दीसंति।
सो पुण विलु(विऊ) लोए जो, बोहइ अप्पणा अप्पं॥९॥ (अर्थ) दूसरों को बोध करनेवाले बहुत से लोग नट के समान दिखते हैं। जो आत्मा के द्वारा आत्मा को बोध कराता है वह फिर जगत् में विद्वान् है।
भरहो भरहाहिवई, भुंजंतो पंचहा वि विसयसुहं।
जं पत्तो वरनाणं, तं जाणस अप्पबोहफलं॥१०॥ (अर्थ) भरतक्षेत्र के अधिपति भरत ने पांच प्रकार के विषयसुख को भोगते हुए भी जो श्रेष्ठज्ञान प्राप्त किया, उसे आत्मबोध का फल जान।
चइउं नियनियरज्जं, करकंडू दुम्मुहो नमीराया।
निग्गइ निवो य च(उ)रो, सिवं गया अप्पबोहेणं॥११॥ (अर्थ) अपने अपने राज्य का त्याग करके करकण्डु, दुर्मुख, नमिराजा, निर्गति ये चार राजा आत्मबोध से शिव(कल्याण) को प्राप्त हुए।
परचित्तरंजणट्ठा, जइ कूडदमं व बाहि रे लढें। कुणसि मणं ता तेणं, {जं जं वंछेसि तं लहसि} परलोए लहसि दुहदंडं॥१२॥ (अर्थ) अरे दूसरों के चित्त के रंजन में स्थित! बाहर मन से झूठ दमन करोगे, तो उससे परलोक में दुःखदण्ड प्राप्त करोगे। अह पुण तं चेव रमणं, चिंतारयणं व सव्वओ रम्म। जइ कुणसि ताव तेणं, जं जं वंछेसि तं लहसि॥१३॥
(अर्थ) अब फिर वही संदर चिन्तामणि की तरह सभी ओर से रमणीय(कर्म) यदि करोगे तो उससे जिस जिस की इच्छा करोगे वह प्राप्त होगा।
अह तिहुयणं पि सयलं, कहमवि बोहेसि जइ वि न हु अप्पं।
तह वि न मुक्खो रे तह, तमेव सु(मु)क्खो जणे किं नु?॥१४॥ (अर्थ) यद्यपि किसी भी प्रकार से तीनों लोकों का संपूर्ण बोध करता है, लेकिन सचमुच आत्मा का बोध नहीं कराता है, अरे मूर्ख! इससे तूं लोक में मूर्ख क्यों नही है?
बहयाण वि लोयाणं, पुरिसो दितो वि को वि असणाई।
जइ अप्पणा न भुंजइ, तावु(व) छुहा जाइ किं तस्स? ॥१५॥ (अर्थ) यदि कोई पुरुष बहुत लोगों को भोजनादि देते हुए यदि खुद उसका सेवन नहीं करता तब तक क्या उसकी भूक मिटती है?