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श्रुतदीप-१
(हिन्दी अन्वयार्थ)-कामरूपी अग्नि से निकलते हुए धूएं के कारण कामी पुरुष सही और गलत रास्ते को नहीं जानता। अच्छे और बूरे को नहीं पहचान पाता। कार्य अकार्य का भेद नहीं जानता।
गृहे यत्र नारी निवासं करोति प्रशस्तो न तत्राऽस्ति वासो मुनीनाम्। गुहायां हरिर्यत्र वाशं(सं)करोति प्रशस्तो न तत्रास्ति वासो मृगाणाम्॥३५॥(भुजंगप्रयात) (हिन्दी अन्वयार्थ)-जिस घर में स्त्री रहती हो वहां पर साधु का ठहरना उचित नही है। जैसे जिस गुफा में सिंह (शेर) रहता हो वहां पर हरिण का रहना उचित नहीं।
शीलेन प्राप्यते सौख्यं शीलेन विमलं यशः।
शीलेन लभ्यते मोक्षः तस्मात्शीलं वरं व्रतम्॥३६॥ (हिन्दी अन्वयार्थ) शील से सुख प्राप्त होता है, शील से निर्मल यश प्राप्त होता है, शील से मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिये शील श्रेष्ठ व्रत है।
लुङ्काऽऽख्यगच्छाऽम्बरमित्रतुल्यं यशस्विनामा गणिना गरिष्ठः। तस्य प्रसादाच्च सुभाषितानां षट्त्रिंशिकेयं मयका प्रणीता॥३७॥(भुजंगप्रयात) (हिन्दी अन्वयार्थ)लुका नामके गच्छ में सूर्य (और चंद्र) समान यशस्वी नाम के श्रेष्ठ गणी हुए (है)। उनकी कृपा से मैने (अज्ञात) यह सुभाषितो की छत्तीसी बनाई।
॥ इति श्री प्रज्ञाप्रकाशषट्त्रिंशिका सम्पूर्णा ॥
॥ श्रीरस्तुः शुभः॥ इस प्रकार प्रज्ञाप्रकाशषट्त्रिंशिका समाप्त हुई।।
इति श्री प्रज्ञाप्रकाशकुलकसंपूर्णम्।। संवत् १८८२ ना वर्षे शाके १७४७ ना प्रवर्तमाने पौष शुद ५ दिने शुकरवारे शुक्ल पक्षे श्रीमंगलपूरेन लखीतां श्रीरस्तु सकल पंडीत शिरोमणी पंडीत प्रवर पंडीत पं श्री ५ नित्यचन्द्रगणि तत् पंडीत प्र. पं. श्री ५ प्रीतचंद्रजीगणि तत् शिष्य महापं. प्र. पं. श्री ५ जितचंद्रजी गणि तत् शिष्य मा. प्र. पं.पं.श्री ५ चतुरचंद्रजी गणि शिष्य पं मा. पं. पं श्री ५ भाग्यचंद्रजी गणि तत् शिष्य प्रवर पं. मा. पं. पं. श्री ५ रुखचंद्रजी तत् शिष्य पं। श्री ५ खेमचंद्रजी गणि तत् शिष्येन लखीत। मु.केसरचन्देन आत्मार्थे श्रीगुरुदेव आदेशेन लिपीकृत। सं १८८२ ना वर्षे शा.१७४७ ना पौष सुद ५ शुक्रवासरें। अत्रगाथा सर्वे ९१ एग्रन्थानम्। श्रीरस्तु कल्याणमस्तु श्री।