________________
प्रज्ञाप्रकाशषट्त्रिंशिका
मद नहीं होता, मान नहीं होता।
(बा) ) हवे सीध कहेवा छे ? ते कहे छे- ते सीधनें काया नही १ मन नही २ रूप नही ३ {मोटा कवीश्वर म. } मोटा कवीश्वरनें {मक} अकलस्वरूप छे। नेच्छा [कहेतां]. इछा नही वली मोह नही । पुंन्ये. (पुन) वली पाछु आववूं नही, राग नही, द्वेष नही वेषो [क] वेस नही, मद नही, बलापण मान नाही ॥४॥
सिद्धा न नार्यो न नरा न क्लीबाः वक्तृत्वावक्तृत्वयोगा' न चला न सन्ति। न शिष्टसंहारकृदो (तो) न दृश्या भोगार्थिनो नाकृतिधारका न॥५॥(उपजाति)
(हिन्दी अन्वयार्थ) सिद्ध(आत्मा) नारी नही होते, पुरुष नहीं होते, नपुंसक नहीं होते। उन्हें वाणीका व्यापार नही होता, वे चल नहीं होते, उन्हे चेष्टा नहीं होती, इहा नहीं होती, कृति नही होती, वे दृश्य नहीं होते । वे शिष्टों का संहार नही करते, वे अदृश्य होते है, उन्हें भोग की इच्छा नहीं होती, वे आकृति के धारक नहीं होते।
(बा) सिद्धा सीध तें स्त्री नही, नरा. पुरुष नही, नपुसक नही । वक्तृत्वावक्तृत्वयोगा कहेतां वली वचन योग्य नही, कुवचन योग्य पण नही। न चला चलवंत नही, न शिष्टसंहारकृदो. श्रेष्ठ संहार न करे। वली दीसा पण नही, भोगार्थिनो भोगनोऽर्थ पण नही, नाकृतिधारका न वली आकारनें पण धरे नही॥५॥
यथाऽग्नितापं सुखदो जनानां शीतं सदा हन्ति न संशयोऽस्ति । श्रीसिद्धजापो हि तथा च ज्ञेयं पापं प्रकृष्टं च किमत्र चित्रम्?॥६॥(उपजाति)
१९
(हिन्दी अन्वयार्थ)जिस तरह अग्नि का ताप सभी को सुख देता है (क्योंकि) वह हमेशा ठंडी को दूर करता है। इस बात में कोई संशय नहीं उसी तरह सिद्ध का जाप प्रकृष्ट पाप को दूर करता है उसमें क्या आश्चर्य है?
बालाव.: यथाऽग्नितापं जेणे दृष्टांते अग्नितापादिक दृष्टांते सुखदाइ जनने अथवा मनूषनें । शीतं --- तेहवो सदा न एह वातनो संशय संदेह छे नहीं। वली श्रीसिद्धजापो. श्री सीध तेनूं स्मरण तेणहि ज दृष्टांते जाणवूं। पापं पाण (प) घणा तें-प्रकृष्टं ते टाले किमत्र चित्रम्. ते आश्चर्य नहीं ॥ ६ ॥
सर्वज्ञदेवस्य च नामजापात् प्राप्नोति किं नाऽग्निभयं क्षयं च ?
प्राप्नोति किं राजभयं न नाशं? प्राप्नोति किं चौरभयं न नाशम् ? ॥७॥ (इन्द्रवज्रा)
(हिन्दी अन्वयार्थ)श्री सर्वज्ञ देव के नाम का जाप करने से क्या अग्नि का भय दूर नहीं होता? राजा का भय दूर नहीं होता? चोर का भय दूर नहीं होता?
(बा) सर्वज्ञदेवस्य सर्वज्ञ अरिहंत देवनां नामजापात् कहेतां नामनो जाप करवा थकी प्राप्नोति पांमे किं. ते कीशुं अग्निभय नाश वली भयनो पण क्षय थाय नीचे। प्राप्नोति कहेतां पामें राजभयं न नाशं? कहेतां राजादिकनो भय तेनो नास थाए,न कहेतां नीश्चे, प्राप्नोति कहेतां पामे वली चोरभयं न नाशं? कहेतां चोरप्रमुख तेहना भ[य]नो नास थाए नीश्चे॥ ७॥
गुरुविना को न हि मुक्तिदाता गुरुं विना को न हि मार्गगन्ता ।
गुरुविना को न हि जाड्यहन्ता गुरुं विना को न हि सौख्यकर्ता ॥ ८॥ ( उपेन्द्रवज्रा )
१. यहां पाठ अस्पष्ट है। पाठ इस तरह होना चाहिए - वक्तृत्वायोगा