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श्रुतदीप-१
(हिन्दी अन्वयार्थ)गुरु के बिना कोइ मुक्तिदाता नहीं है। गुरु के बिना कोइ सच्चा मार्ग बताने वाला नहीं है। गुरु के बिना जडता (अज्ञान) को कोइ दूर नहीं कर सकता। गुरु के बिना कोइ सुखी नहीं कर सकता। ___ (बा) गुरुं विना कहेतां गुरु विनां कोइनी मुक्तिदाता कहेतां मोक्ष अपवर्गनो देंणहार गुरु विना, गुरु विना को न हि मार्गगन्ता कहेतां गुरु वगर कोइ नथी मोक्षमार्गना जाणणहार, गुरु विना को कहेता वलीपण गुरुदेव विना कोय नथी जडमूर्खपणानो हरता, वलीपण गुरुवग(विना) कोय नथी संसा[]ने विषे सुखनो करणहार॥८॥
सर्वेषु जीवेषु दयालवो मे ते साधवो मे गुरवो न चान्ये।
पाखण्डिनस्तूदरपूरकाश्च प्राणातिपातेन वदन्ति धर्मम्॥९॥(इन्द्रवज्रा) (हिन्दी अन्वयार्थ)जो सभी जीवों के लिये दयालु है ऐसे साधु मेरे गुरु है, दूसरे नहीं। जो 'हिंसा से धर्म होता है। ऐसा कहते है वे पाखंडी तो सिर्फ अपना पेट भरते है। (गुरु होने के योग्य नहीं)
(बा)सर्वेषु कहेतां सकलजीवनें विषं दयावंत जे छे छकायना पीडाहर, ते. [कहेता] साधु माहरे एहवा गुरु छे वलीपण बीजा माहरा गुरु नथी। पाखंडी महामायावइ कपटे करीने सहीत जे पेटना भरणहार, प्राणातिपातेन.जे जीव आरंभ हत्याए करी सहित, वली वदन्ति कहेतां कहे छे धर्म प्ररुपे छे तें॥९॥
__त्यक्त्वा कुटुम्बं च धनं समस्तमादाय वेषं श्रमणस्य पुंसा।
नारक्षितो येन निजश्च धर्मो हा हारितं तेन मनुष्यजन्म॥१०॥(इन्द्रवज्रा) (हिन्दी अन्वयार्थ)परिवार को छोडकर, सभी धन संपत्ति का त्याग करके, साधु वेष को धारण करके जो अपना धर्म संभाल नहीं पाते वे मनुष्य जन्म हार गये हैं।
(बा) त्यक्त्वा [कहेता] तजीने कुटुंबं कहेतां कुटुंबनें धनं समस्तं कहेतां धन समस्तने, मादाय. आदाये ते ग्रह(ही). वेसनें श्रमणस्य जतीनां ते पुरुष नारक्षितो येन कहेतां न राख्यो मूलथी जेणे निजश्च धर्मो कहेतां पोतानों धर्म, हा. खेदेन हार्यो तेणे नरे ते मनुष्यजन्म मनुष्य जन्म अवतार॥१०॥
संसारिकं येन सुखं सकष्टं ज्ञात्वेति वैराग्यबलेन मुक्तम्।
पश्चान्न देया खलु तेन दृष्टिः संसारसिन्धौ प्रतिपूर्णकष्टे॥११॥(इन्द्रवज्रा) (हिन्दी अन्वयार्थ)'संसार का सुख कष्ट युक्त है' यह जान कर जिसने वैराग्य के बल से उसे ठुकरा दिया है। उसे वापस मुड के कष्ट से भरे हुए समुद्र सम संसार को देखना नहीं चाहिए।
(बा) संसारिकं येन कहेतां संसारक दुखें द्रव्योपार्जनादिक जेणे अशुभ अनेक कष्टसहित, ज्ञात्वेति. जाणीनें वैराग्यबलेन मुक्तम् संवेगी थइ वैराग्ये थइनें वली बलें मुक्यां(क्यो) संसार। पश्चान्न देया पाछी न देवी खलु तेन दृष्टिः ते साधु ते नीश्चे करी तेणें आखें संसारसिद्धौ प्रतिपूर्णकष्टे कहेतां संसार समुद्र सागरने विर्षे पूर्ण ते संपूर्ण कष्ट छे तेने विषः॥११॥
काष्ठे च काष्ठान्तरता यथास्ति दुग्धे च दुग्धान्तरता यथास्ति।
जले जलत्वान्तरता यथास्ति गुरौ गुरुत्वान्तरता तथास्ति॥१२॥(उपजाति) (हिन्दी अन्वयार्थ) जिस तरह एक काष्ठ से दूसरे काष्ठ में अंतर होता है, दूध दूध में अंतर होता है, पानी पानी में अंतर होता है, उसी तरह गुरु गुरु में अंतर होता है।
१. पातानि इति जा.प्रतौ