Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 23
________________ १४) प्रस्तावना ___ ज्ञानका चौथा भेद मनःपर्ययज्ञान है । यह दूसरेके मनमें अवस्थित विषयको जानता है, इसलिए इसकी मनःपर्ययज्ञान संज्ञा है। इसके दो भेद हैं- ऋजुमति और विपुलमति । इनमें विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानके उत्कृष्ट क्षेत्रका विचार करते हुए सूत्र में कहा है कि यह ज्ञान उत्कृष्ट रूपसे मानुषोत्तर शैलके भीतर जानता है, बाहर नहीं। वीरसेन स्वामीने इसका व्याख्यान करते हुए क्षेत्रके विषयमें तो यह बतलाया है कि मानुषोत्तर शैल पैतालीस लाख योजन प्रमाण क्षेत्रका उपलक्षण है । इसलिए इससे मानुषोत्तर शैलके बाहर का प्रदेश भी लिया जा सकता है। कारण कि उत्कृष्ट विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी जहां स्थित होगा वहांसे दोनों ओरके समान क्षत्रके विषयको ही जानेगा । मान लीजिये कि कोई एक विपुलमनिमनःपर्ययज्ञानी मानुषोत्तर शैलसे एक लाख योजन हटकर अवस्थित है। ऐसी अवस्थामें वह दोनों ओर साढे बाईस लाख योजन तकके विषयको जानेगा, अतः स्वभावत: उसका विषयक्षेत्र मानुषोत्तर शैलके बाहर हो जायगा । यह नहीं हो सकता कि एक ओर वह एक लाख योजन क्षेत्रका विषय जाने और दूसरी ओर ४४ लाख योजनका (देखिये पृ. ३४४ का विशेषार्थ ) ज्ञानका पांचवां भेद केवलज्ञान है । यह सकल है, सम्पूर्ण है, और असपत्न है । खण्डरहित होनेसे वह सकल हैं । पूर्णरूपसे विकासको प्राप्त होकर अवस्थित हैं, इसलिए सम्पूर्ण है । कर्म-शत्रुओंका अभाव हो जानेके कारण असपत्न है । इसके विषयका निर्देश करते हुए बतलाया है कि यह सब लोक, सब जीव और सब भावोंको एक साथ जानता है । कारण स्पष्ट है। क्योंकि आत्माका स्वभाव जानना और देखना है। यदि वह समर्याद जानता है तो उसका कारण प्रतिबन्धक कारण है। किन्तु जब सब प्रकारके प्रतिबन्धक कारण दूर हो जाते हैं तो फिर ज्ञान में यह मर्यादा नहीं की जा सकती कि वह इतने क्षेत्र और इतने कालके भीतरके विषयको ही जान सकता है । इसलिए केवलज्ञानका विषय तीनों कालों और तीनों लोकोंके समस्त पदार्थ माने गये हैं। ये ज्ञानके पांच भेद हैं इसलिए ज्ञातावरण कर्मके भी पाच भेद माने गये हैं। आत्मसंवेदनाका नाम दर्शन है। इसका जो आवरण करता है उसे दर्शनावरण कहते हैं । इसकी चक्षुदशनावरण आदि ९ प्रकृतियां हैं । साधारणत: दशनके स्वरूपके विषयमें विवाद है । कुछ ऐसा मानते है कि ज्ञानके पूर्व तो सामान्यावलोकन होता है उसे दर्शन कहते हैं। किन्तु वीरसेन स्वामी यहां 'सामान्य ' पदसे आत्माको ग्रहण करके यह अर्थ करते हैं कि उपयोगकी आभ्यन्त र प्रवृत्तिका नाम दर्शन और बाह्य प्रवृत्तिका नाम ज्ञान है । दर्शनमें कर्ता और कर्ममें भेद नहीं होता, परन्तु ज्ञानमें कर्ता और कर्मका स्पष्टतः भेद परिलक्षित होता है । तात्पर्य यह है कि किसी विषयको जानने के पहले जो आत्मोन्मुख वृत्ति होती है उसे दर्शन कहते हैं और घट आदि पदार्थोंको जानना ज्ञान है । दर्शनके मुख्य भेद चार हैं- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । श्रुतज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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