Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 17
________________ ८ ) प्रस्तावना प्रयोगकर्म तपः कर्म और क्रियाकर्म में उस उस कर्मवाले जीवोंकी द्रव्यार्थता संज्ञा है और उन जीवोंके प्रदेशोंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है । समवदानकर्म और ईर्यापथक में उस उस कर्मवाले जीवोंकी द्रव्यार्थता संज्ञा है और उन जीवोंसे सम्बन्धको प्राप्त हुए कर्मपरमाणुओंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है । अधः कर्ममें औदारिकशरीरके नोकर्मस्कन्धोंकी द्रव्यार्थता संज्ञा है ओर औदारिकशरीर के उन नोकर्मस्कन्धोंके परमाणुओंकी प्रदेशार्थता संज्ञा है । इसलिए संख्या आदिका विचार इन कर्मोंकी द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थताकी संख्या आदिको समझकर करना चाहिए। ३ प्रकृति अनुयोगद्वार प्रकृति, शील और स्वभाव इनका एक ही अर्थ है । उसका जिस अनुयोगद्वार में विवेचन हो उसका नाम प्रकृति अनुयोगद्वार है । इसका विचार प्रकृतिनिक्षेप आदि सोलह अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर किया जाता है । उसमें पहले प्रकृतिनिक्षेपका विचार करते हुए इसके नामप्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति ये चार भेद किये गये हैं और इसके वाद कौन नय किस प्रकृतिको स्वीकार करता है, यह बतलाते हुए कहा है कि नैगम, व्यवहार और संग्रह नय सब प्रकृतियोंको स्वीकार करते हैं । ऋजुसूत्रनय स्थापनाप्रकृतिको स्वीकार नहीं करता । शब्दनय केवल नाम और भावप्रकृतिको स्वीकार करता है । कारण स्पष्ट है । आगे नामप्रकृति आदिका विस्तारसे विचार किया है । यथा नामप्रकृति- जीव और अजीवके एकवचन और बहुवचन तथा एकसंयोगो और द्विसंयोगी जो आठ भेद हैं उनमेंसे जिस किसीका 'प्रकृति' ऐसा नाम रखना वह नामप्रकृति है । स्थापनाप्रकृति - काष्ठकर्म आदिमें व अक्ष और वराटक आदिमें बुद्धिसे ' यह प्रकृति है ' ऐसी स्थापना करना वह स्थापनाप्रकृति है । द्रव्यप्रकृति- द्रव्यका अर्थ भव्य है । इसके दो भेद हैं- आगमद्रव्यप्रकृति और नोआगद्रव्यप्रकृति | आगमद्रव्यप्रकृति में प्रकृतिविषयक शास्त्रका जानकार उपयोगरहित जीव लिया गया है । अतः आगमके अधिकारीभदसे स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम ये नौ भेद करके उनकी वाचना, पृच्छना प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति और धर्मकथा द्वारा ज्ञान सम्पादनकी बात कही है। इस विधि से प्रकृतिविषयक ज्ञान सम्पादन कर जो उसके उपयोगसे रहित है वह आगमद्रव्यप्रकृति कहलाता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । द्रव्यप्रकृतिका दूसरा भेद नोआगमद्रव्यप्रकृति है। इसके दो भेद हैंकर्मद्रव्यप्रकृति और नोकर्मद्रव्यप्रकृति। यहां सर्वप्रथम नोकर्मद्रव्यप्रकृति के अनेक भेदोंका संकेत करके कुछ उदाहरणों द्वारा नोकर्मकी प्रकृति बतलाई गयी है । यथा घट सकोरा आदिकी प्रकृति मिट्टी है, धानकी प्रकृति जौ है, और तर्पणकी प्रकृति गेहूं है । तात्पर्य यह है कि किसी कार्य के होने में जो पदार्थ निमित्त पडते हैं उन्हे नोकर्म कहते हैं । गोम्मटसार कर्मकाण्ड में ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंकी दृष्टिसे प्रत्येक कर्मके नोकर्मका स्वतन्त्र विवेचन किया है । यथा- वस्त्र ज्ञानावरनोकर्म है । प्रतीहार दर्शनावरणका नोकर्म है । तलवार वेदनीयका नोकर्म है । मद्य मोहनका नोकर्म है | आहार आयुकर्मका नोकर्म है। देह नामकर्मका नोकर्म है। उच्च-नीच शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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